व्यक्तिगत अनुभव व अनुभूति को जियो ।
जीवन को मात्र मन बहलाने, ललचाने, कभी रोने कभी गाते हुये नहीं जीना है। जन्म दुबारा कब मिलेगा और मृत्यु कब होगी, कहाँ होगी, कैसे होगी । इसका कहीं कोई किसी भी ज्ञानी विज्ञानी अज्ञानी को कोई पता नहीं । बड़े – बड़े ज्ञानियों विद्वानियों, जपी तपी , योगी, भोगी, त्यागी तपस्वी स्वरूपों ने , उपदेशकों ने, प्रवचन कर्ताओं ने पंच विकारो ( काम, क्रोध, लोभ , मोह अहंकार की गिरफ्त में रहते हुये ही निज सुख स्वार्थ से प्रेरित होते हुये , स्वयं उस सत्य सत्येवश्वर के नियम नीति का पालन न करते हुये परम सत्य आत्मा अनुभूति का परम सत्य ज्ञान न खुद ग्रहण किया, न ही किसी को भी दिया मात्र अपनी बुद्धि विवेक की चतुराई चालाकी, निज सुख स्वार्थ से ओत प्रोत होते रहते हुए। अपने तन मन जीवन के व इन्द्रियों के सत्यानु भूति न बांटते हुए, छल छद्म झूठ पाखण्ड के आश्रय तले मात्र अन्याय अत्याचार को ही जगद् जन को दिया है , बांटा है । यह है छलीय ,छद्मीय,ढोंगी ,पाखण्डीय  स्वरूपों का महा पण्डित, महा विद्वानों, महामानव स्वरूपों का आडम्बर ओढ़े लोगों का सत्य ।

“पर उपदेश कुशल बहुतेरे ,जे आचरहि ते नर न घनेरे ॥ “

दूसरों को सीख, शिक्षा, ज्ञान, कल्याण का मार्ग बताते हैं , देते हैं । परन्तु वह परमसत्य ज्ञान, सीख, स्वयं नहीं लेते हैं । मानते पालते व स्वयं उसका अनुकरण नहीं करते ना ही जीते हैं। यह है उपदेशकों का प्रवचन कर्ताओं का सत्य ।

” तुलसी यह संसार की उलटी पुलटी रीति। औरन को गैल बतावैं आपन नाकें भीत ।। “

इस सत्य को जान व अपने को देख | अपने गन्तव्य का आवश्यकीय स्वरूप पाने हेतु मूल स्वरूप पर हर राग रंग से गुण स्वरूप से अपने तनमन ज्ञान ध्यान को पूर्ण . एकाग्र मन से एक लक्षीय उद्देशीय स्वरूप सम्पूर्णतया बनाकर सम्पूर्णतया केन्द्रित कर और अपनी ही भाव विचार धारा की मस्ती में संपूर्ण तया . ज्यादा मौन होकर मौन रहकर आनंद लें व स्वयं की आत्मा के दर्शन पर आनन्दमयी जीवन जियें। यही व्यक्ति के व्यक्तिगत अनुभवी जीवन जीने का परम सत्य है।

-डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री ”

 

 

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