हमे अपने जड़ों से जुड़े रहना चाहिए।– प्रो रजनीश कुमार शुक्ल।

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अतीत के परिपेक्ष्य में भविष्य का निर्माण” यह विषय शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण विचार को दर्शाता है।

यह इस बात पर जोर देता है कि कैसे पारंपरिक शिक्षा के मूल्यों और ज्ञान को समकालीन समय में उपयोग किया जा सकता है

और भविष्य के निर्माण में मदद की जा सकती है।

हम पारंपरिक शिक्षा के महत्व और इसके समकालीन अनुप्रयोगों पर चर्चा करेंगे।

हम देखेंगे कि कैसे पारंपरिक शिक्षा के सिद्धांत और मूल्य हमें आज की दुनिया में भी मार्गदर्शन कर सकते हैं और हमें बेहतर भविष्य के निर्माण में मदद कर सकते हैं।

अतीत में हमारे पास जो था, वह हमारे वर्तमान को आकार देता है, हमारे वर्तमान के निर्णय हमारे भविष्य को निर्धारित करते हैं।

इसलिए, अतीत को समझना और उससे सीखना महत्वपूर्ण है, ताकि हम अपने वर्तमान को बेहतर बना सकें और अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सकें।

हमारा वर्तमान हमारे अतीत के अनुभवों और निर्णयों का परिणाम है, और हमारे भविष्य की दिशा हमारे वर्तमान के निर्णयों पर निर्भर करती है।

इसलिए, हमें अपने वर्तमान को सावधानी से जीना चाहिए और अपने भविष्य के लिए योजना बनानी चाहिए।
उक्त विचार आज अपरान्ह 2:00 बजे सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के पाणिनि भवन सभागार में तुलनात्मक धर्म दर्शन विभाग द्वारा आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय परिचर्चा में “अतीत के परिपेक्ष्य में भविष्य का निर्माण” (पारंपरिक शिक्षा का समकालीन अनुप्रयोग) विषय पर कोपान मोनेस्टी काठमाण्डू, नेपाल के प्राचार्य श्री गेशे थुब्तेन शेरब ने बतौर मुख्य अतिथि व्यक्त किया।
वेलेनस्टिनो जियाकोमिन, संस्थापक, एलिस प्रोजेक्ट ने बतौर मुख्य वक्ता कहा कि पारंपरिक शिक्षा के मूल्यों और सिद्धांतों को समकालीन समय में उपयोग किया जा सकता है।

हम पारंपरिक शिक्षा के माध्यम से सीखे गए मूल्यों को अपने दैनिक जीवन में लागू कर सकते हैं और बेहतर भविष्य के निर्माण में मदद कर सकते हैं।

उदाहरण के लिए, पारंपरिक शिक्षा में हमें सिखाया जाता है कि कैसे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना है और पर्यावरण की रक्षा करनी है।

हम इस मूल्य को समकालीन समय में लागू कर सकते हैं और पर्यावरण संरक्षण में मदद कर सकते हैं।भारतीय ज्ञान परंपरा और प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था के माध्यम से हम वास्तविक शिक्षा की गुणवत्ता को समझ सकते हैं और अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
अध्यक्षता करते हुए वेदांत शास्त्र के उद्भट विद्वान प्रोफेसर रामकिशोर त्रिपाठी ने कहा कि
“अतीत के परिपेक्ष्य में भविष्य का निर्माण” यह विषय हमें यह याद दिलाता है कि पारंपरिक शिक्षा के मूल्यों और सिद्धांतों को समकालीन समय में उपयोग किया जा सकता है और बेहतर भविष्य के निर्माण में मदद की जा सकती है।

हमें पारंपरिक शिक्षा के महत्व को समझना चाहिए और इसके मूल्यों को अपने दैनिक जीवन में लागू करना चाहिए।भेद भाव को भूलकर हमे सम भाव होने चाहिए।

संगोष्ठी के संयोजक एवं तुलनात्मक धर्म दर्शन विभागाध्यक्ष प्रो रजनीश कुमार शुक्ल ने सभी मंच पर आसीन अतिथियों का स्वागत और अभिनंदन करते हुए कहा कि ज्ञान परंपरा में शिक्षा को साधना के रूप में देखा जाता है, जहां गुरु और शिष्य के बीच एक गहरा संबंध होता है।हमे अपने जड़ों से जुड़े रहना चाहिए।

■डॉ विशाखा शुक्ला ने संचालन किया।

■प्रो हरिप्रसाद अधिकारी संगोष्ठी का धन्यवाद ने ज्ञापित किया।

■डॉ लूसी गेस्ट, डॉ माधवी तिवारी,डॉ विशाखा शुक्ला, श्री वेलेनस्टिनो जियाकोमिन को अंग वस्त्र, माला एवं स्मृति चिन्ह देकर अभिनंदन किया गया।

मंच पर आसीन अतिथियों के द्वारा माँ सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्वलन।

मंच पर आसीन अतिथियों का अंगवस्त्र, माल्यार्पण एवं स्मृति चिन्ह देकर स्वागत और अभिनंदन किया गया।

प्रो रामपूजन पाण्डेय, प्रो जितेन्द्र कुमार,प्रो हरिप्रसाद अधिकारी, प्रो सुधाकर मिश्र, प्रो हीरक कांत, प्रो महेंद्र पाण्डेय,प्रो विधु द्विवेदी, प्रो अमित कुमार शुक्ल,प्रो विजय कुमार पाण्डेय,डॉ विशाखा शुक्ला,डॉ लूसी गेस्ट,डॉ माधवी तिवारी,डॉ संजय तिवारी, डॉ अजय तिवारी,डॉ लेखराज उपाध्याय, अखिलेश कुमार मिश्रा आदि उपस्थित थे।

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