धर्म शब्द के बारे में ज्यादातर मानव समुदाय गुमराह है या उसकी सत्य व्याख्या से वास्तव में यथार्थ में अवगत नहीं है अथवा मनुष्य अपने निज सुख स्वार्थ की आपूर्ति हेतु या निज सुख स्वार्थ साधने हेतु अपनी बौद्धिक विवेकशीलता का प्रयोग चतुराई चालाकीयता स्वरूप से  संसार समाज के लोगों को पथ भ्रष्टीय एवं मार्गच्युत करने भुलाने भटकाने में ज्यादातर लोग तत्पर हैं । ऐसे लोगों ने ही धर्म के स्वरूप को एक मानसिक विकृति स्वरूप में धर्म को हिन्दू ,मुसलमान , सिख , ईसाई , जैन और बौद्ध रूप में व्यक्त किया है लोगों ने इसे ही धर्म का स्वरुप जान लिया है जबकि यह यथार्थ में सत्य नहीं है। धर्म व्यक्ति (नर -नारी , स्त्री – पुरुष) द्वारा धारणीय अपने जीवन के नैतिक आचार चरित्रीय कार्यों में उतारने , धारण करने , पालन करने व अपने मनोभावों में अपने जीवन कार्य व्यापारों में पूर्ण परमसत्य रूप से जीने का नाम है । धर्म परम ईश्वर परम सत्ता सर्वोच्च सत्ता के समस्त सृजन का आत्मवत् स्वरूप से पारस्परिक ” आत्मवत् सर्वभूतेषु “ जानने व मानने का तथा पारस्परिक सम्मान करने रखने का पूर्ण परमसत्य नाम है ।  धर्म इस समग्र सृष्टि पटल पर अचम्भा युक्त , आश्चर्य जनक होने वाले, घटने वाले, घटाने वाले अपने बुद्धि विवेक से ज्ञान विज्ञान से, अपने अनुभव अनुभूति से परे मानव द्वारा सर्वेश्वर की संचालित जो पल में विनाश और पल में कल्याण व व्यक्तियों के व्यक्तिगत जीवन में अभूतपूर्व पल में सुख , पल में दुख प्राकृतिक माध्यम से लाने वाले उस परम सत्य सत्येश्वर की परम सत्ता की सत्य अस्तित्व को इस सृष्टि धरातल पर जानने , पहिचानने , मानने व उस जगत पिता जगत माता  जिसका अंश शरीर में आत्मा के रूप में विद्यमान है । उस आत्मेश्वरी की अन्तःकरणीय स्वर , आवाज , दर्शन को ही मानव ( नर-नारी , स्त्री – पुरुष ) द्वारा अपने जीवन (तन-मन-इंद्रियों  द्वारा ) कार्य आचार , आचरण, चरित्र , संसार समाज में, अपने घर परिवार में अपने आत्मिक पारस्परिक नाते रिश्तों के स्वरूपों में पूर्ण परम सत्य रुप से आत्मवत् कार्यव्यवहारी स्वरूप से अथवा स्वरूप में जीने का नाम है। धर्म , सद् आचार , सद् सत् सत्य आचरण स्वयं के शरीर द्वारा धारणीय , माननीय , पालनीय, स्वरूप का नाम है। धर्म तन मन जीवन इन्द्रियों के भाव विचार में , ज्ञान ध्यान में किसी भी दूसरे शरीर के किसी भी प्रकार के अहित को न करने व अगले को किसी भी तरह की दुःखानुभूति , कष्टानुभूति का सत्य अनुभव एहसास न होने देने, न करने देने का ही पूर्ण परम सत्य नाम है। धर्म किसी भी जीवात्मा के साथ किसी भी प्रकार का छल छद्म, झूठ पाखण्ड , अन्याय अत्याचार , धोखा दगा, ठगी लूट न करने तथा किसी भी शरीर का शारीरिक मानसिक दैहिक व आर्थिक स्वरूप में किसी भी तरह का शोषण अंशमात्र भी अपनी स्वयंकी काया से न करने , न होने देने एवं अपना आत्म संयम , आत्म नियंत्रण पूर्ण परम सत्य रूप में करने व रखने का नाम है । धर्म मात्र मंदिर , मस्जिद, गिरिजाघर , गुरुद्वारा में पूजा करने साधना , आराधना करने , घर में कथा भागवत् , अखण्ड रामायण , कुरानखानी , दुख दारिद्र स्वरूप धारियों को लघुरूप में अन्न खिलाने , दान करने का नाम नहीं है । पूर्ण परम सत्य धर्म है प्रत्येक को आत्मवत् जानने मानने अपनाने के स्वरूप का नाम धर्म है । धर्म सभी जीव प्राणी मानव के साथ आत्मवत् पूर्ण परम सत्य कार्य व्यवहार करने निभाने का नाम है । धर्म उस पूर्ण परम ब्रह्म जगद् ईश्वर परम सत्ता सर्वोच्च सत्ता के न्याय नियम नीति से विधान से  “जो पल में तोला पल में रत्ती पल में करता है राई ”  उससे सदैव डरते हुए किसी पर भी किसी भी प्रकार का अन्याय अत्याचार करने कराने से सदैव बचते हुए हर पल हर क्षण अपने पूर्ण परम सत्य होश हवाश में रहते हुए ऐसा ध्यान रखते हुए ‘कि मुझसे जीवन के अंतिम क्षणों तक कुछ भी अंश मात्र भी किसी का बुरा ना हो, गलत ना हो , असत्य न हो इसका सदैव ध्यान रखने का नाम है।

और धर्म का पूर्ण परम सत्य सर्वोपरि सर्वोच्च स्वरूप :

स्वयं के जीवन को निर्विकार होना, निर्विकारी रहना ,निर्लिप्त होना , निर्लिप्त रहना निच्छल होना , निश्छलीय रहना, निष्कामीय होना , निष्कामीय रहना , निरहंकारी होना , निरहंकारी रहना , निर्मोही होना , निर्मोही रहना , निर्लोभी होना , निर्लोभी रहना, निष्कपटीय होना, निष्कपटीय रहना , अभेदीय होना , अभेदीय रहना व उपरोक्त स्वरूपों का जीवन बनाना व वैसा ही जीवन जीना । धर्म धर्म लोग चिल्लाते हैं स्वयं कष्ट उठाते झेलते व अपने ही आत्मवत् भाइयों माताओं बहिनों बेटियों भार्याओं को कष्ट उठवाते हैं व कष्ट झिलवाते हैं वह धर्म नहीं है। धर्म न हिन्दू है न मुसलमान, न सिक्ख है न ईसाई धर्म है मानवता , आत्मीयता , आत्मवतता । धर्म आचरण चरित्र में धारण करना व सत्य को जीना है । पारस्परिक प्रेम स्नेहिल जीवन निर्वाह ।  अपनी सच्ची मेहनत श्रमशीलता से जो उपार्जन हो उसमें ही पूर्ण परम सत्य आत्म संतोष मानते हुए जीना और सदैव प्रसन्न रहना ।

मन्दिर मस्जिद चर्च गुरुद्वारा व मठ मात्र उपरोक्त सत्य का पाठ पढ़ाने की मात्र प्रथम पाठशालाएं हो सकती हैं। जहां मात्र उपरोक्त परमसत्य का पाठ पढ़ाया जाये । यदि उपरोक्त आचार व उपरोक्त सत्य भूमिका की गतिविधियां संचालित न की जायें व शिक्षा न दी जाये व ना ही सिखाई जाये । तो उनका कहीं कोई पूर्ण परमसत्य आचार व कहीं कोई पूर्ण परम सत्य औचित्य नहीं है । व आने व जाने का व्यक्तियों का माताओं बहिनों बेटियों भार्याओं का । फिर वह मात्र छल, छद्म, झूठ, पाखण्ड , धोखा , दगा , ठगी , लूट के मात्र केन्द्र हैं। वहां कहीं कोई उस परम सत्य सत्येश्वर का कहीं कोई रूप रंग व व्यक्ति की आस्था , श्रृद्धा विश्वास के कहीं कोई वे केन्द्र नहीं है। मात्र भ्रम है, भवाटकी है, धोखा है, दगा है,धंधा है , व्यवसाय है, पाखण्ड है । परम सत्य (ईश्वर) सर्वोच्च सत्ता व मानव (नार नारी , स्त्री पुरुष) के शरीर व जीवन का सत्य –  कैसी अन्धकारीय विडम्बना है जिसमें ज्यादातर मानव शरीर , समुदाय फंसा हुआ है । सोचो ? जो जगद् ईश्वर , जगद् पिता , जगद् माता जो स्वयं में ही सर्वदाता है । ( सर्वसुख , रोटीरोजी, जीव, प्राणी , मानव को व सभी शारीरिक ,मानसिक, सुख , शान्ति, आनंद , उदर पूर्ति , भूख , आहार, भोजन,धन धान्य , फल मेवा सबका उत्पन्न कर्ता व प्रदाता है । सबका कर्ता , भर्ता धर्ता , दुःखहरता , संघार कर्ता व सारी भूमिकायें निभाने , देने वाला प्रदाता है , सर्वभंडारी है , सर्वसमर्थ , सर्वसुखकारी है ) जिस जगत पिता को किसी भी चीज , वस्तु, पदार्थ , द्रव और द्रव्य की कोई आवश्यकता नहीं । सोचो ? मनुष्य उसकी तो सेवा पूजा करता है। और जो उसी के सृजित जीव , प्राणी , मानव जो नाना प्रकार के अभावों से दुख कष्टों परेशानियों से ग्रसित हैं जो ईश्वरीय सत्य में आत्मवत हैं । उन्हें आत्मवत् न मानते हुए गैर मानते हुए उन्हें तरह तरह की यातनाएं देता है। उनके साथ दुर्व्यवहार करता है एवं पारस्परिक रूप में उनके साथ छल ,छद्म , झूठ ,पाखण्ड , अन्याय, अत्याचार ,  धोखा, दगा करता है। सोचो ? यह कैसी ईश्वर भक्ति , आस्तिकता , आस्था, श्रद्धा , ईश्वर विश्वास है अथवा कैसी ईश्वरीय सत्य प्रियता है । ? जागो ? और परमसत्य ईश्वर व ईश्वर अंश जीव प्राणी मानव को पहिचानों, अपने स्वयं के पूर्ण परमसत्य को सत्य से पहिचानो , अपने सत् सद् सत्य , असद् असत् असत्य कर्मों को पहिचानों । तभी ही उस सर्वेश्वर परम सत्ता उस एकेश्वर से सत्य प्रेम जुड़ेगा अथवा जोड़ पाओगे । अन्यथा यदि दोजख , जन्नत , स्वर्ग, नरक है कहीं । तो वहां तो जाओगे ही नहीं । बस यहीं इस नश्वर संसारीय पंच विकारों की चकरघिन्नी में विभिन्न – विभिन्न यौनियों के स्वरूपों में तरह तरह की यातनाएं पाते हुए घिसटते हुए , नाक रगड़ते हुए कीट पतंग की भांति जिओगे और मरोगे और मारे जाओगे । ‘ कर्म प्रधान विश्व रचि राखा जो जस करे सो तस फल चाखा ॥ कोऊ न काहू को सुख दुख करि दाता । निजकृत कर्म भोग सब भ्राता ॥ ईश्वर न मारे काहूये  दोषी नहीं है ईश्वर । आप ही से मरता है मानव छल छद्म झूठ पाखण्ड का अन्याय अत्याचार का ओढ़े आडम्बर ॥ ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहस सुख राशि ॥ धर्म लोगों की सेवा प्रेम में है । तस्वीह या मुसल्ला में नहीं।। सम्पूर्ण मानवता एक परिवार है । अल्लाह उन्ही से प्यार करता है जो उसके सृजन से प्यार करता है ॥ वह पूर्ण परम सत्य सत्येश्वर सभी में पारस्परिक सत्य प्रेम चाहता है इसके अलावा कहीं कुछ भी नहीं। ईश्वरीय सत्य को जानों और उसे पूर्ण परमसत्य से मानो। तभी वह पूर्ण परमसत्य (ईश्वर) मिलेगा, उसकी सत्य प्रियता मिलेगी , भक्ति मिलेगी, शक्ति मिलेगी , सत्य जीवन मिलेगा, सत्य आनंद मिलेगा सत्य सुख शांति व पूर्ण परमसत्य आत्मसंतोष मिलेगा ॥ जागो रे जिन जागना अब जागन की बार। तब क्या जागे मानवा जब सो गये, मरि गये जब चेतना विहीन हो गया शरीर लाचार । । यह सब धर्म के आयाम व पूर्ण परम सत्य धर्म के पूर्ण परम सत्य सूत्र आधार हैं जो लेखक के व्यक्तिगत जीवन में अनुभव अनुभूति परक सिद्ध हुए और वह इन धर्म आचारों का अपने जीवन काल में इस पूर्ण परम सत्य को जीने के लिए , उतारने के लिए तत्पर है और पूर्ण परमसत्य प्रयत्न रत है और वह उस परमेश्वर से, सर्वेश्वर से प्रार्थना भी करता है कि हे परमपिता , हे परम माता मुझे वह परम सत्य भक्ति शक्ति देते हुए मेरी वह लाज रखना कि मैं आपके बनाये हुए परमसत्य धर्म की कसौटी पर खरा उतरुं और आपके श्री चरणों का पूर्ण परम सत्य सत्पात्र अपने जीवन काल में सत्य सिद्ध हो सकूं मुझ पर दया करना । मुझपर स्नेह रखना। त्राहिमाम त्राहिमाम सर्व त्राहिमाम |

– डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”

 

 

 

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