मणिपुर पर शांति की अपील करने में कैसे होगी मोदी की हेठ

हिंसा से जल रहे मणिपुर पर कुछ न बोलने की जिद पर अड़े प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिये यह करना उनकी आदत के अनुरूप है। हर अपेक्षा की अवहेलना उन्हे अपना मान बनाये रखने की उनके लिये शर्त बन गया है। इसे मद की पराकाष्ठा न कहा जाये तो क्या कहा जाये।

उनके पहले भी तमाम निरंकुश नेता रहे हैं। महात्मा गांधी के बारे में भी कहा जाता है कि वे बहुत बड़े तानाशाह थे। कांग्रेस से प्रत्यक्ष संबंध तोड़ने के बाद भी कांग्रेस में कोई फैसला वे अपनी मर्जी के खिलाफ नहीं होने देते थे। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस उनकी मर्जी के खिलाफ कांग्रेस के अध्यक्ष चुन गये तो उन्होंने नेता जी को काम नहीं करने दिया। नेता जी जब गंभीर बीमार थे तब उन्होंने उनकी पूरी कार्यकारिणी का इस्तीफा दिला दिया। आखिरकार उनके कारण नेता जी को कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा और अपना रास्ता बदलना पड़ा। यह दूसरी बात है कि महात्मा गांधी की संपूर्णता में महानता के वे भी अंत तक कायल रहे और उन्होंने ही सबसे पहले आजाद हिंद फौज बनाने के बाद सिंगापुर से रेडियो प्रसारण में सबसे पहले उन्हें राष्ट्रपिता कहा था। जब देश की स्वाधीनता की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी और कांग्रेस में पहले प्रधानमंत्री के नाम के लिये वोटिंग हुयी थी तब राज्य कमेटियों ने सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया था लेकिन महात्मा गांधी ने इसे अपनी मर्जी के खिलाफ माना और पर्ची भेजकर पटेल को अपना नाम वापस लेने के लिये बाध्य कर दिया। यह और बात है कि पटेल ने इसके खिलाफ कोई बगावत नहीं की बल्कि आसानी से उनका आदेश शिरोधार्य कर लिया क्योंकि पटेल को गांधी में बहुत श्रद्धा और आस्था थी। यह गांधी के विराट व्यक्तित्व की विशेषता रही। इसके पीछे यह था कि गांधी ने देश की राजनीति पर इतना नियंत्रण होते हुये भी कभी सत्ता की चाहना नहीं की। कभी परिवार को अपने प्रभाव का लाभ नहीं मिलने दिया। नैतिक जीवन जीने की पराकाष्ठा का निर्वाह किया इसलिये वे अपवाद हैं। अपनी तानाशाही के लिये कोई उनकी मिसाल नहीं दे सकता। इन्दिरा गांधी भी कम निरंकुश नहीं थीं। इमरजेंसी में ही नहीं अन्यथा भी अपना प्रतिवाद करने वालों को वे सबक सिखाने से नहीं चूंकती थीं। उन्हें इन्दिरा इज इण्डिया और इण्डिया इज इन्दिरा का नारा बहुत सुहाया था। अपने अनुयायियों से उन्हें पूरे भक्ति भाव की अपेक्षा रहती थी। पर सार्वजनिक तौर पर उन्हें लोक लाज और जन भावनाओं की भी परवाह बहुत रहती थी। आम लोगों के प्रति विनम्र दिखने का अभिनय निभाने में वे कभी चूक नहीं करतीं थीं क्योंकि उन्हें गुमान था कि वे नेहरू की बेटी हैं जिन्हें भारत के महान लोकतांत्रिक नेता के रूप में विश्व मंच पर समादृत किया गया था। वे अपने पिता की इस प्रतिष्ठा से परे नहीं होना चाहतीं थीं। इमरजेंसी के 19 महीने बाद जब उन्होंने अचानक चुनाव कराने का फैसला लिया तो इसके लिये उनके सामने कोई चुनौती नहीं थी। पर इमरजेंसी लगाने को लेकर उनके मन में अपराध बोध था कि जिस जनता की वे प्रिय नेता रहीं हैं वह उनके इस कदम से अपने को आहत महसूस कर रही होंगी। लोगों की निगाह में अपने कद की बहाली के लिये वे व्यग्र होकर इमरजेंसी के इतने कम समय बाद ही नये चुनाव कराने के लिये तत्पर हो गयीं थीं।

पर मोदी का मामला अलग ही है। उन्हें लगता है कि सामान्य अपेक्षाओं को ठुकराकर मनमानी करने में ही उनकी शान है इसलिये कई मामलों में वे गैर जरूरी हठवादिता से बाज नही आते। बृजभूषण शरण सिंह की प्रतिष्ठा के लिये बिना कहे अपनी प्रतिष्ठा लगाने का कोई औचित्य उनके लिये नहीं था। पर उनके अंदर मद के कारण जो एक किस्म की उद्दंडता घर कर गयी है उसने उन्हें इस मामले में बेतुकी जिद करने के लिये प्रेरित किया। मणिपुर के लोगों से शांति तक की अपील करने के लिये तैयार न होने के पीछे भी उनका यही ईगो उन्हें घेरे हुये है। प्रतिपक्ष के नेता, बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग और सोशल मीडिया पर इसे लेकर उनके प्रति कड़ी नाराजगी जतायी जा रही है। पर जितना ही लोग खींझ रहे हैं परपीड़क की तरह उतना ही उनको मजा महसूस हो रहा है। उन्हें मालूम है कि इस समय उनके सितारे बुलंद चल रहे हैं इसलिये वे स्याह सफेद कुछ भी करें उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बहुत गिरने वाला नहीं है। लेकिन वे यह नहीं सोचते कि इतिहास का भी एक न्याय होता है जो आगे चलकर ऐसी चीजों को माफ नहीं करता। मोदी के कई कारनामें ऐसे है जो उनकी कालपुरूष बनने की महत्वाकांक्षा को उजागर करते हैं फिर भी आश्चर्य है कि इस मामले में वे दूरगामी सोच का परिचय क्यों नहीं दे पा रहे हैं।

इस समय देश का राजनीतिक परिदृश्य कुछ वैसा नजर आ रहा है जैसा पौराणिक आख्यानों में वर्णित रहता है। भगवान की शत्रु सेना की मायावी शक्ति का वर्णन इसमें प्रासंगिक है जो बताती है कि माया लोगों को भ्रमित कर देती है जिसमें मेघनाथ की तरह के शत्रु सेना के दिग्गज बड़ी चुनौती खड़ी कर देते हैं। आज वितंडा के साधन इतने प्रभावी है कि लोगों का विवेक माया के वशीभूत होकर सुप्त हो चुका है जबकि एक जागरूक लोकतंत्र की पहली निशानी यह है कि लोग लोकप्रिय से लोकप्रिय नेता को जबावदेही के घेरे में रखें। पर लोगों ने अपनी इस शक्ति और दायित्व को भुलाकर व्यक्ति विशेष के सामने पूरी तरह समर्पण कर दिया है जबकि लोकतंत्र के लिये यह संपूर्णतः अनर्थकारी है। अदानी के मामले में भी कई सवाल बनते थे पर लोगों को उनके उत्तर के लिये सरकार को बाध्य करना गवारा नहीं लगा बल्कि ऐसा कर रहा प्रतिपक्ष जनमानस की निगाह में देशद्रोह जैसे अपकृत्य का दोषी माना गया। राफेल सौदा हो या अमेरिका से हाल में ड्रोन खरीदने के लिये किया गया करार जो गंभीर संदेह इनमें उपजे थे पता चलने के बावजूद लोग उनसे विमुख हो गये जिससे विपक्ष भी थक कर चुप हो गया। सुप्रीम कोर्ट तक ने पूंछा कि पेगासिस स्पाई वेयर खरीदा गया या नहीं सरकार इतनी ही बताने की कृपा कर दे पर सरकार सरेआम मुकर गयी और लोगों ने भी इससे जुड़े किसी सवाल को प्रोत्साहित नहीं किया। दो दिन पहले जिनके यहां ईडी पहुंचती है और जिन्हें सरकार भ्रष्ट बताती है उन्हीं के समर्थन से महाराष्ट्र में अपनी सरकार चलाने लगती है फिर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह डींग हांकने में संकोच नहीं होता कि वे न खायेंगे और न किसी को खाने देंगे। इसके तो दर्जनों उदाहरण हैं कि भ्रष्ट प्रमाणित हो चुके लोगों को प्रश्रय देने में भाजपा कितनी आगे है फिर भी प्रधानमंत्री घोटालेबाजों को न बख्शने की गारंटी का दम भरने में शर्माते नहीं हैं तो इसका कारण है कि जनमानस को उनमें अगाध विश्वास है यानी अंधविश्वास की पराकाष्ठा है जो लोगों के चरमसीमा तक भ्रमित हो जाने का संकेतक है। लोग हो सकता है कि कई कारणों से वर्तमान सरकार को अभी बनाये रखना जरूरी समझते हों तो इसमें हरजा नहीं है लेकिन लोकतंत्र को बरकरार रखने के लिये उन्हें सरकार से जबावदेही लेने के लिये बहुत पैनेपन का परिचय तो देना ही पड़ेगा।

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