लोक हितम् मम करणीयम् –

रिपोर्ट: डा0 बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”

हे परमपिता हे परम आत्मा मुझे ऐसा सत् सत्य ज्ञान प्रकाश दो / मेरे तन मन बुद्धि विवेक में ऐसा ज्ञान प्रकाश प्रवाहित कर दो कि मैं इस नश्वर शरीर के कार्य प्रणाली को लोकहित में / लोग हित में / जीव -प्राणी – मानव हित में। मेरे तन में जब तक प्राण हैं और शरीर में सांसें हैं सदैव पूर्ण समर्पित करता रहूँ। 

मनसा सततम् स्मरणीयम् –

अर्थात हे जगद् ईश्वर शरीर मन मस्तिष्क और हृदय में सदैव आपका स्मरण बना रहे। अर्थात सदैव आपका स्मरण करता रहूँ।

वचसा सततम् वदनीयम् – 

 वाणी सदैव सत्य परम आत्मा व समग्र सृष्टि पटल पर विद्यमान जीव – प्राणी – मानव के प्रति पारस्परिक आत्मवत्  वंदना करती रहे।

लोकहितम् मम कारणीयम्……….

 न भोग भवने रमणीयम् –

हे परम पिता मुझमें सद् बुद्धि, सद् विवेक, सद् ज्ञान की जागृति सदैव बनी रहे। कि मैं भव्य भवनों , महल, अट्टालिकाओं में सुन्दर नारियों के भोग बंधनों से सदैव विरत रहूँ। अर्थात उनमें कभी भी न बंधू (मैं सुंदर नारियों के भोग में इसलिए नहीं पड़ना चाहता हूं क्योंकि वे सदैव पतन का ही मार्ग प्रशष्त करते हैं।) क्योंकि शरीर भोगों को नहीं भोगता बल्कि भोग शरीर को ही भोग डालते हैं।

न च सुख शयने शयनीयम्

 तथा मैं ईश्वर प्रदत्त आत्मचेतना को घोर निद्रा में डुबोकर मात्र विषय निद्रा में ही डूबा रहूँ यानी विषय निद्रा का सुख लेता रहूँ मुझे ऐसा निद्रा सुख नहीं चाहिए |

अर्ह निशं जागरणम्

हे परम ईश्वर मुझे जब तक मृत्यु ने छुआ नहीं है । मैं सदैव आपकी प्रदत्त मूल चेतना की सत्य जागृति में पूर्ण रूपेण जागता रहूँ।

कार्य क्षेत्रे त्वरणीयम् 

तथा सदैव आपके बताये मार्ग पर अपनी कर्मेन्द्रियों को कार्यशील रखकर आपका ही कार्य अर्थात परमपिता परममाता के ही पूर्ण समर्पणत्व में कार्य करता रहूँ ।

लोक हितम् मम करणीयम् ….

दुःख सागरे तरणीयम्

 दुःखों का सागर भी अगर सामने आ जाये तो हे परमात्मा आप द्वारा प्रदत्त परमसत्य चेतना के आत्मबल पर उसे तैर कर पार कर जाऊँ ।

कष्ट पर्वते चरणीयम्

कष्टों का पहाड़ सामने खड़ा हो उसपर सत्य मार्गीय आत्मचेतना के आत्मबल से दौड़ कर चढ़ जाऊँ ।

विपत्ति विपने भ्रमणीयम्

जीवन कर्मशाला में विपत्तियां अम्बार लगाकर आकर सामने खड़ी हो जाएं । परन्तु हे परमेश्वर आपकी प्रदत्त आत्मचेतना द्वारा की गयी आत्मसाधना के बल पर कभी भी कठिन से कठिन विपत्तियों में न ही घबराऊं और न ही कभी भ्रमित होऊँ ।

लोक हितम् मम करणीयम् ….

महादारण्ये घनान्धकारे बन्धु जनाये स्थिता गहवरे तत्र मया सञ्चरणीयम्

हे जगद् पिता इस भव भवाटिकी युक्त घोर अंधकारमयी शंका सन्देहों में डूबे , अज्ञान अन्धकार में डूबे संसार व संसार के लोगों को मात्र हे परमपिता परमेश्वर / हे परममाता परमेश्वरी मैं शरीर मन मस्तिष्क हृदय से आत्म बंधु स्वीकार करता हुआ सत्य प्रेम स्नेहवत् परम आत्मस्वरूप में देखूँ , निहारूँ और सदैव पारस्परिक सेवारत रहूँ।

” तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि तुझमें है सारा संसार। इसी भावना से अंतर भर मिलूं सभी से तुझे निहार ॥

प्रतिपल निज इन्द्रिय समूह से जो कुछ भी आचार करूं । केवल तुझे रिझाने को तेरा ही व्यवहार करूं ॥ ”

लोक हितम् मम करणीयम् ….

साभार रचियता

व्याख्याकार – डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”

 

 

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