संवैधानिक मूल्यों के क्षरण और मुफ्तखोरी की संस्कृति से डगमगाता सामाजिक ढांचा

विशेष टिप्पणी | सामाजिक–राजनीतिक विमर्श

डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री “

देश में संवैधानिक नीतियां आज अपने मूल उद्देश्य से भटकती प्रतीत हो रही हैं। “अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग” की स्थिति ने पारस्परिक सत्य, सामाजिक एकता और सामूहिक विवेक को कमजोर कर दिया है। परिणामस्वरूप समाज विभिन्न वर्गों और मानसिकताओं में विभाजित होता जा रहा है, जिससे संवैधानिक ढांचा डगमगाने लगा है।

विशेषज्ञों और सामाजिक चिंतकों का मानना है कि अराजक और असामाजिक तत्व सामाजिकता की दुहाई देकर असत्य को सत्य के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। संगठित होकर ये तत्व गलत को सही और सही को गलत सिद्ध करने में सफल हो रहे हैं। वहीं, गरीबी, अशिक्षा, अज्ञानता, आत्मविश्वास की कमी और आर्थिक असमानता से ग्रसित वर्ग असत्य के आगे विवश होकर घुटने टेकने को मजबूर है।

मुफ्त राशन व्यवस्था पर गंभीर सवाल

प्रधानमंत्री की 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की योजना को लेकर भी समाज में गंभीर प्रश्न उठ रहे हैं। प्रत्यक्ष अनुभवों के अनुसार, ऐसे अनेक संपन्न लोग—जिनके पास कोठियां और बहुमंजिला मकान हैं—भी इस योजना का लाभ उठा रहे हैं, जबकि वास्तविक जरूरतमंदों तक इसका पूरा लाभ नहीं पहुंच पा रहा।

विश्लेषकों का कहना है कि यह व्यवस्था कुछ वर्गों में अकर्मण्यता, आलस्य और परावलंबन को बढ़ावा दे रही है। कई गरीब परिवार केवल मुफ्त राशन पर निर्भर होते जा रहे हैं, जबकि उनके परिवारों के सक्षम सदस्य नशे और निष्क्रियता में डूबे हैं। इससे श्रमशीलता, आत्मनिर्भरता और उद्यमशीलता का क्षरण हो रहा है।

भविष्य की चेतावनी

चिंता इस बात की है कि यदि भविष्य में ये योजनाएं बंद हुईं, तो बड़ी आबादी भुखमरी और गहरे संकट का सामना कर सकती है। बिना श्रम-संस्कार और पूंजी के, ये वर्ग गुलामी जैसी परिस्थितियों में फंसने को विवश हो सकते हैं। बेरोजगारी, भुखमरी और सामाजिक असंतोष देश की तथाकथित विकास गाथा के खोखलेपन को उजागर कर सकते हैं।

आलोचकों का आरोप है कि शासन, सत्ता और न्याय व्यवस्था से जुड़े अनेक कर्णधार नैतिक पतन की स्थिति में हैं, जिससे जनकल्याण योजनाएं अपने उद्देश्य से भटक रही हैं। इसका सीधा प्रभाव भारत के मानवीय मूल्यों और सामाजिक संतुलन पर पड़ रहा है।

विश्वगुरु बनने की राह पर प्रश्नचिह्न

इन परिस्थितियों में भारत के “विश्वगुरु” बनने के दावे पर भी प्रश्न उठ रहे हैं। जब तक सत्य, नैतिकता, श्रम-संस्कार और सर्वकल्याण की भावना को केंद्र में रखकर नीतियां लागू नहीं होंगी, तब तक वास्तविक और सतत विकास की कल्पना अधूरी ही रहेगी।

प्रार्थना और संदेश

लेखक ने अंत में ईश्वर से प्रार्थना की है कि समाज को अज्ञान और अंधकार से मुक्त कर सत्यबुद्धि, सद्विवेक और सद्ज्ञान प्रदान किया जाए, ताकि शासन, सत्ता और नागरिक—सभी मिलकर सर्वहित और सर्वकल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ सकें।

इतनी शक्ति हमें देना दाता,
मन का विश्वास कमज़ोर हो ना…”

यह प्रार्थना केवल शब्द नहीं, बल्कि आज के भारत और विश्व के लिए नैतिक जागरण का आह्वान है।

“इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमज़ोर हो ना ।

हम चलें नेक रस्ते पे हमसे, भूलकर भी कोई भूल हो ना।

दूर अज्ञान के हो अँधेरे, तू हमें ज्ञान की रौशनी दे ।

हर बुराई से बचके रहें हम, जितनी भी दे भली ज़िन्दगी दे ।

बैर हो ना किसी का किसी से, भावना मन में बदले की हो ना ।

हम चलें नेक रस्ते पे हमसे, भूलकर भी कोई भूल हो ना ।

इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमज़ोर हो ना ।

हम न सोचें हमें क्या मिला है, हम ये सोचें किया क्या है अर्पण ।

फूल खुशियों के बांटें सभी को, सबका जीवन ही बन जाए मधुवन ।

अपनी करुणा का जल तू बहा के,कर दे पावन हर एक मन का कोना ।

हम चलें नेक रस्ते पे हमसे, भूलकर भी कोई भूल हो ना ।

इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमज़ोर हो ना ।

हर तरफ़ ज़ुल्म है, बेबसी है, सहमा सहमा सा हर आदमी है ।

पाप का बोझ बढ़ता ही जाए, जाने कैसे ये धरती थमी है ।

बोझ ममता से तू ये उठा ले, तेरी रचना का ये अंत हो ना ।

हम चलें नेक रस्ते पे हमसे, भूल कर भी कोई भूल हो ना ।

इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमज़ोर हो ना ।

हम अँधेरे में हैं रोशनी दे, खो ना दे खुद को ही दुश्मनी से ।

हम सज़ा पायें अपने किए की, मौत भी हो तो सह ले ख़ुशी से ।

कल जो गुज़ारा है फिर से ना गुज़रे आने वाला वो कल ऐसा हो ना ।

हम चलें नेक रस्ते पे हमसे, भूलकर भी कोई भूल हो ना ।

इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना।। “

(साभार रचयिता )

डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री “

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