सत्यपाल मलिक के पीछे क्यों लग गयी सीबीआ

 

जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कुछ दिनों पहले जाने माने पत्रकार करन थापर को एक साक्षात्कार दिया था जिसमें उन्होंने कई सनसनीखेज बाते कहीं थी। सरकार के लिए इसके चलते धर्म संकट की स्थितिया पैदा हो गयी थी। हमेशा की तरह सत्तापक्ष के जिम्मेदारों ने खामोशी के अस्त्र से पूर्व राज्यपाल के वार को निष्फल करने का सिद्ध नुस्खा अपनाया। हो सकता है कि यह केवल एक संयोग हो कि सत्ता पक्ष जब भी गम्भीर सवालों में घिरता है तो उसी समय कोई और बडा काण्ड हो जाता है जिससे ऐसे सवाल नेपथ्य में चले जाते है। पूर्व राज्यपाल के बयानों पर सरकार की कस्ती जब तूफानों में घिरी हुयी थी तब इस बार फिर पुलिस हिरासत में कुख्यात माफिया अतीक और उसके भाई अशरफ की टीवी कैमरों के सामने गोली मारकर हत्या का भूतो न भविष्यतो जैसा मामला हो गया और इस तरह एक नई हंगामी चर्चा छिड गयी जिसमें सत्यपाल मलिक के इंटरव्यू की बातें फना नजर आयी। बहरहाल जो भी हो लेकिन सरकार ने खुद ही इसके जिन्न को बोतल से बाहर निकालने का काम सीबीआई से मलिक को नोटिस भिजवाकर कर दिया है।

सरकार द्वारा सीबीआई के मनमाने इस्तेमाल का आरोप नया नहीं है। यूपीए सरकार के समय तो शीर्ष अदालत ने सीबीआई के दुरूपयोग के मामलों से क्षुब्ध होकर उसे सरकार का पिंजरे मंे बन्द तोता करार दे डाला था। लेकिन आज लगता है कि पहले फिर भी सीबीआई इस कदर सरकार की कठपुतली नहीं बनी थी। इक्का दुक्का खास मामलों में ही सीबीआई पर राजनैतिक दबाव की नौबत आती थी। लेकिन आम तौर पर सीबीआई को अपने काम काज में स्वायत्तता प्राप्त थी। ऐसा न होता तो सुरेश कलमाडी और ए0राजा जैसे मंत्रियों को उनकी सरकार के समय ही जेल क्यों जाना पडता। लेकिन आज हालत अजीब है। सत्तारूढ पार्टी के किसी नेता को पिछले लगभग 9 वर्षों में सीबीआई ने कभी तंग तक करने की जहमत नहीं दी। दूसरी ओर सीबीआई के शिकंजे में फसे नेता ने अगर भाजपा के पैर पकड लिये तो जांच ऐजन्सी के कोप से उसका मोक्ष हो गया।

इस बीच विपक्ष के किसी नेता ने प्रधानमंत्री के खिलाफ अभियान छेडा तो सीबीआई ने उसे धरदबोचा। हर चुनाव में चाहे वह विधान सभा का हो या लोकसभा का विपक्ष के फण्ड मैनेजरों के यहां सीबीआई के छापे आम बात हो गयी है। विपक्ष कह रहा है कि क्या सत्तापक्ष दूध का एक दम धुला है जो सीबीआई ने आज तक उसके किसी छुटभईये नेता तक के खिलाफ कार्यवाही की जहमत नहीं उठायी। यहां तक कि कर्नाटक के एक विधायक के बेटे के यहां करोडो की नगदी पकडी गयी। फिर भी किसी जांच ऐजेन्सी में जुम्बिश नहीं हुयी। उस पर तुर्रा यह है कि प्रधानमंत्री भाषण देते है कि कांग्रेस के समय के प्रधानमंत्री को कहना पडता था कि सरकार से अगर एक रूपये विकास के लिए भेजा जाता है तो उसमें से 85 पैसे बीच में ही भ्रष्टाचार के परनाले में बह जाते है जिसका मतलब है कि कांग्रेस के समय भ्रष्टाचार की इन्तहा थी। लेकिन अब देश पूरी तरह भ्रष्टाचार मुक्त हो चुका है क्योंकि सरकार ने डीबीटी जैसी व्यवस्थाऐं लागू कर दी है। हम प्रधानमंत्री की नीयत पर शक नहीं कर रहे हो सकता है कि उन पर किसी तरह की हेरा फेरी का आरोप लगाना सम्भव न हो लेकिन उन्होनें सभी को राजा हरिश्चन्द्र बना दिया है यह दावा तो नितांत सफेद झूठ है। यह सम्भव भी नहीं है कि भ्रष्टाचार को सौ फीसदी रोक दिया जाये, उसे न्यून किया जा सकता है। लेकिन लोगों को संतोष मिलता है जब सरकार यह जताये कि उसे यह गुमान है कि उसका तंत्र भ्रष्टाचार से बाज नहीं आ रहा इसलिए उसे दुरूस्त करने के लिए और उपाय किये जाने की मंशा है। लेकिन जब कोई सरकार यह कहे कि उसके समय कोई भ्रष्ट नहीं रह गया तो यह जबरा मारे रोन न दे की कहावत की जाने की धृष्टता कही जायेगी। इसका अर्थ यह निकलता है कि सरकार भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ कार्यवाही से पल्ला झाडकर चाहती है कि लोग इस पर जबान भी न खोले। यही तो अग्रेंज साहब करते थे। जुल्म करने से भी बाज नहीं आते थे और जुल्म से पीडित लोगों को आहें भी नहीं भरने देते थे।

सत्यपाल मलिक को नोटिस भेजा जाना विरोध की हर आवाज का दमंन किये जाने के सिलसिले की एक कडी मालूम होती है। यह नहीं है कि हमारा आशय मलिक के आरोपों को पुष्ट समझना हो लेकिन मलिक को उत्पीडित करने की बजाय सरकार को उनके आरोपों की ईमानदारी से जांच करानी चाहिए थी और दूध का दूध पानी का पानी कर देना चाहिए था। लेकिन अब तो दर्जनों ऐसी नजीरे कायम हो चुकी है जो यह इशारा करती है कि सरकार में बैठे लोगों को भगवान का दर्जा दे दिया गया है और भगवान कभी किसी आरोप का जबाव देने के लिए सामने नहीं आते। इसी तरह इस सरकार के प्रभू विपक्ष के कितने भी बडे नेता या कितनी भी बडी मीडिया ऐजेन्सी के द्वारा लगाये गये आरोपों का जबाव देने की जरूरत नहीं समझते। जहां तक जनमत की बात है उन्हें मालूम है कि लोग भी उन्हें भगवान का अवतार मान चुके है। इसलिए उन पर लगाये जा रहे आरोप की तार्किकता पर गौर नहीं करते बल्कि उनके मन में तत्क्षण यह भाव आता है कि अमुक हमारे प्रभु पर आरोप लगाने की जुर्रत कर के महा पाप कर रहा है जिसके लिए उसे रौरव नर्क में धकेला जाना अनिवार्य है। वरना हम भी पाप के भागी बनकर ऐसे नर्क में पड जायेंगे।

आज तो हालत यह है कि अगर किसी ने प्रधानमंत्री के खिलाफ पोस्टर भी लगा दिया तो सुरक्षा एजेन्सिया उसके पीछे पड जाती है। सवाल यह है कि लोग लोकतन्त्र में रिक्शा वाले के खिलाफ तो भडास निकालेगें नहीं, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री ही नकारात्मक सोच वालों के निशाने पर नजर आयेंगी और इन पदों पर बैठे लोगों का बडप्पन इस बात में है कि बजाय इनके घर पुलिस भेजने के इन्हें अनदेखा करें। अतीत में यही होता था। जब भी कोई बात सार्वजनिक गुस्से का मुद्दा बनता था। तब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के खिलाफ ही नारे बाजी या पोस्टर बाजी होती थी और ऐसी चीजों पर पुलिस अपना वक्त जाया नहीं करती थी पर अब तो सुरक्षा एजेंसिया व जांच एजेंसिया सिर्फ इसी काम में जैसे लगी हो। जबकि यह सत्ताधारियों के असुरक्षा बोध का परिचय कहलाता है। कुछ हद तक इन्द्रागांधी के बारे में भी ऐसी ही धारणा व्याप्त थी और इसलिए तब खुलेआम कहा जाता था कि इन्दिरागांधी डरी हुयी राजनेता प्रतीत होती है।

बेदाग न केवल होना चाहिए बल्कि दिखना भी चाहिए कि उच्च पद पर बैठे श्रीमान् बेदाग है। अपने प्रति ऐसी धारणा मजबूत करने की जिम्मेदारी खुद जिम्मेदार लोगों की है। इसलिए विरोध की आवाजों का दमन करने में ऊर्जा लगाने की बजाय सामने आकर विरोधी को झूठा साबित करने का साहस दिखाना जरूरी हैै। वरना जब तक सम्मोहन की तंद्रा है तब तक लोग सत्ता के गुमान में चूर लोगों के साथ भले ही नजर आये। लेकिन परवर्ती इतिहास में विवेकशील मूल्यांकन होना लाजिमी है और तब हो सकता है कि अभी की ब्रान्डिग की सारी मेहनत पर पानी फिर जाये और इतिहास का निर्मम परीक्षक आज के किसी नायक को सबसे बडे खलनायक के दर्जे पर खडा न कर दे।

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