यदि सबकी मनोसोच मनोदृष्टि सम्पूर्णतया समान व एक है तो पारस्परिक कहीं कोई उलझन व संकट या संघर्ष नहीं।

रिपोर्ट  : डा ० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”

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  • सभी को अपने-अपने आत्मविश्वास, आत्मसाहस से अपनी सम्पूर्ण आवश्यकताओं कीआपूर्ति मात्र अपने बलबूते पर करना चाहिए। 
  • एक दूसरे के ऊपर हावी होने से हावी रहने से सम्पूर्णतया बचना चाहिए।
  • अच्छी व बुरी धारा में जाने के परिणाम सबके समक्ष सामने आ जाते हैं

देखिये माता-पिता , भाई बहिन, पतिपत्नी, बेटी बेटे यदि सबकी मनोसोच मनोदृष्टि सम्पूर्णतया समान व एक है पारस्परिक स्वरूप से। अंश मात्र भी कोई भेदभाव विचार स्वरूपों में यदि नहीं है, तो पारस्परिक कहीं कोई उलझन व संकट या संघर्ष नहीं है ।

परन्तु यदि सभी उपरोक्त स्वरूप यदि अपने-अपने मनोन्मुखी हैं सबकी अपनी-अपनी मनोसोच मनोभाव, मनोदृष्टि और मनोस्रष्टि है। तो फिर सभी को अपने-अपने आत्मविश्वास, आत्मसाहस, आत्म श्रम, आत्मपौरुष , आत्मपुरुषार्थ मात्र से , मात्र अपने तप त्याग से, मात्र अपनी बुद्धि विवेकीय ,ज्ञान अनुभवीय तपश्चर्या से अपनी सम्पूर्ण आवश्यकताओं की, अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं की आपूर्ति मात्र अपने बलबूते पर करना व रखना चाहिए । कहीं एक दूसरे के ऊपर लदने चढ़ने से, हावी होने से हावी रहने से सम्पूर्णतया बचना व रहना चाहिए। ऐसी स्थितियों में यही पूर्ण परम सत्य रीति व नीति है। भाई यदि निज परिजनों को अपने- अपने मन की चलानी है ? तो सम्पूर्णतया अपने-अपने ही बलबूते पर , आत्मशक्ति पर, आत्मबुद्धि , विवेक, आत्मज्ञान व आत्मअनुभव पर ही चलाओ । सभी में अपनी-अपनी सही गलत सोच के कारण जो लाभ हानि हो वह प्रत्येक स्वयं ही ना अपनी-अपनी मनमानी सोच के सुख व दुःख स्वयं ही झेलें व स्वयं ही उठायें यही पूर्ण व परम सत्य नीतिगत है तथा प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही अनुभूति करे, गलत सोच समझ के कष्टों को व अच्छी सोच समझ के सुखों को।

इन स्थितियों में फिर सभी निज जनों को माता-पिता, भाई बहिन , पति-पत्नी , बेटीबेटों के अलग-अलग अपने-अपने मनोभावों विचारों पर प्रत्येक को अपने-अपने अलग-अलग पूर्ण परम सुख शान्ति, आनन्द , आत्मसन्तोष पूर्णतया पाने हेतु अपने-अपने बल पर अपने-अपने पौरुष पुरुषार्थ पर, अपने-अपने बुद्धि विवेक व ज्ञान तथा ध्यान पर व अपनी- अपनी आत्मतप तपश्चर्या व त्याग तथा अपनी-अपनी परम सत्य श्रम साधना पर ही अपना निर्माण व अपना जीवन बनाना संवारना मात्र अकेले-अकेले प्रयत्न करते हुए संचालित करना चाहिए । इसमें सभी के बुद्धि विवेक के निर्णयात्मक स्वरूप के सही व गलत, अच्छी व बुरी धारा में जाने के परिणाम सबके समक्ष सामने आ जाते हैं। इससे व्यक्तियों को सही गलत अपनी कमी कमजोरियों का पता स्वयं से  स्वयं को लग जाता है। यदि गलत सोच समझ वाले व्यक्ति की इन स्थितियों से सीख लेने की बुद्धि खुल जाती है तो वह अपना जीवन सम्हाल सकता है , सुधार सकता है और अच्छा बनाकर उन्नति परक मार्ग की ओर बढ़ सकता है। यदि निजजनों में यदि अलग -अलग मनोसोच हो भिन्न-भिन्न के भाव तनमन में हों तो फिर प्रत्येक को कहीं कोई एक दूसरे का सहारा आश्रय अंशमात्र भी न लेते हुए मात्र अपनी ही बुद्धि विवेक का परिचय स्वयं से स्वयं को देना चाहिये । जिससे वह अपनी सही गलत रूपीय सोच समझ को सही रूप में पहिचान सके व अपना जीवन सुधार सम्हाल सके । ऐसे निजजनीय रूप स्वरूपीय भले ही गूढ़ रिश्ता हो । जब भिन्न- भिन्न , अलग-अलग सोच हो तो पारस्परिक एक दूसरे को ना ही किसी अपने पर लदना चाहिए और ना ही अपने ऊपर किसी अपने को लादना चाहिए ऐसे में समान गौरव गरिमा का ,पारस्परिक मर्यादा का, आदर्श का व आत्म स्वाभिमान का पूर्ण परम सत्य रूप में सत्य रूप से स्वागत करना चाहिए , सम्मान करना चाहिए I

दो रंगी छोड़ दे एक रंग हो जा, या सरासर मोम हो जा या सरासर संग हो जा ॥

– डा ० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”

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