सदाचार को जीना व धारण करना,पालन करने पर ही सुकर्म होंगे।

रिपोर्ट: डा० बनवारी लाल पीपर ” शास्त्री”

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  • सदाचार , सद् गुण, परम सत्य आत्मायी दर्शन को धारण करते हुए पालन करना ही परम सत्य धर्म है।
  • संत पुरुषों का सद आचरणीय व्यक्ति का सद् आचार है । संत सहै दुःख पर हित लागी । । 
  • और असंत स्वरूपों का आचार है – पर दुःख हेतु असंत अभागी ॥ 

सृष्टि सृजेता , पालन कर्ता, संहारण कर्ता के अस्तित्व को समग्र सृष्टि पटल पर उसके परम सत्य न्याय नीति मात्र का परम सत्य भय रखते हुए मानव (नर-नारी, स्त्री-पुरुष) को सम्पूर्ण तया पूर्ण निर्भय निर्भीक होकर, अभय रहकर अपना परम सत्य जीवन पूर्ण निर्लिप्त, पूर्ण निर्विकार, पूर्ण निष्कपट,निष्कामी, निर्मोहीय , निर्लोभीय, निरहंकारीय स्वरूपीय पद्धति पर सूत्र पर, सिद्धांत पर सत्य गुणीय भाव से बनाना व जीना एवं रखना चाहिए l क्योंकि इस तरह के सिद्धांत पर जीवन रखने व संचालन करने पर मानव को किसी भी तीरथ ,किसी भी मूरत, किसी भी जप तप पूजा विधान की कहीं कोई भी आवश्यकता परम ईश्वर से मिलन हेतु नहीं है।

इस उपरोक्त सिस्टम, नीति-रीति से जीवन संचालन करने में, व्यक्ति को तन मन इंद्रियों से कार्य व्यापार, कार्य व्यवहार करने में कोई दोष युक्त कर्म व कुकर्म नहीं होंगे l वह परम सत्य सद् आचारीय होगा l क्योंकि धर्म का जो स्वरूप है। वह सदाचार , सद् गुण, परम सत्य आत्मायी दर्शन को धारण करते हुए पालन करना ही परम सत्य (ईश्वरीय प्रियता का ) धर्म है। इस सदाचार को जीना व धारण करना, पालन करने पर ही सुकर्म होंगे। जो परम सत्य ईश्वर से मिलन करने वाले मिलान कराने वाले वे परम सत्य तत्व हैं जो अकाट्य हैं I उपरोक्त आचरण ही मानव का परम सत्य संत स्वरूप है।

देखो परम पिता परम माता मानव से क्या अपेक्षा करते हैं , रखते हैं – ” निर्मल जन मन सोई मोहि भावा । मोहि न कपट छल छिद्र दुरावा ॥ ” कबीर मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर पाछे लागे हरि फिरें कहे कबीर कबीर II मनुष्य द्वारा किसी भी अपने आत्मीयजन के प्रति उपरोक्त सत्य धारण से न किसी के साथ छल छद्म,झूठ पाखण्ड , अन्याय, अत्याचार, धोखा-दगा होगा नहीं । बस यही परमेश्वर की परम सत्य पूजा है , साधना है, आराधना है, जप है तप है। मात्र मंदिर , मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च जाने , तीर्थों में घूमने, गंगा में स्नान करने, सत्य आचरण से विहीन होकर धर्म ग्रन्थ सुनने सुनाने, पढ़ने पढ़ाने से कहीं कुछ भी नहीं होने वाला I ना ही परम ईश्वर मिलेगा न ही और सद् सत्य आचरण विहीन होकर, चतुराई चालाकी और साम ,दाम ,दण्ड,भेद नीति यह परम ईश्वर की नीति नहीं है ।

इसे अपनाकर छ्ल छह्म , झूठ पाखण्ड , अन्याय अत्याचार का आश्रय लेते हुए, अपनाते हुए मानव जीवन से दोष युक्त कर्म होंगे, पाप युक्त कर्म होंगे । जो परम सत्ता सर्वोच्च सत्ता परम ईश्वर के न्याय नीति के विरुद्ध है और कर्मों का फल देने वाला परमात्मा है । जिसकी न्याय नीति से मनुष्य बच नहीं सकता । और जिस कारण मनुष्य को सत्ता सुख और आत्मिक शांति व आत्म संतोष नहीं मिल सकता। तथा मनुष्य दोनों ओर से वंचित हो जाता है। माया मिली न राम (ईश्वर ) ॥ संत पुरुषों का सद आचरणीय व्यक्ति का सद् आचार है ।

संत सहै दुःख पर हित लागी । ।  और असंत स्वरूपों का आचार है – पर दुःख हेतु असंत अभागी ॥  क्योंकि संसार में परम सत्य सुख, परम सत्य आत्म कल्याण ,आत्म मंगल व सर्व मंगल मात्र समग्र सृष्टि में विद्यमान जीव प्राणी मानव  के प्रति पारस्परिक आत्मवत् प्रेम, आत्मवत् सम्मान ,आत्मवत् स्नेह , आत्मवत् कार्य व्यवहार बस यही परमेश्वर की प्रियता का मानव द्वारा पालन करना परम सत्य आचार है यही उस सर्वेश्वर का जप है , तप है, तीरथ है, मूरत है व सारी सरिता स्वरूपीय माताओं का स्नान है ।

बाकी समग्र सृष्टि पटल में मानव जीवन में कहीं कुछ भी नहीं है । सद् आचार से अपना निर्माण करना , उससे स्वयं का स्वयं के परिवार का परम सत्य निष्ठा से व परम सत्य कर्तव्यीय दृष्टि दर्शन से जीवकोपार्जन करना व जीवन को सहज सरल बनाते हुए रखते हुए नित्य क्रियाओं का प्रकृति (ईश्वर) माता की सत्य नीति रीति से अपना तारतम्य जोड़े रखते हुए पूर्ण स्वस्थ रहते हुए परम सत्य सद् आचरणीय जीवन संचालन करना तथा कहीं कोई अपने तन मन इंद्रियों के अति वशीभूत होकर अपने तन मन दिल दिमाग पर अनावश्यकीय बोझ लादना, डालना और अपने को रोगी बीमार बनाकर के स्वयं की  कुबुद्धि से जिंदा लाश बनकर के जीना व मरना I – परमेश्वर किसी को मारता नहीं है । बल्कि व्यक्ति अपने ही कुकर्मों से अपना आत्म विनाश करके स्वयं नष्ट हो जाता है ।

– डा० बनवारी लाल पीपर ” शास्त्री”

 

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