पार्ट : 1
ईश्वर क्या है ? कहाँ है ? जानो
उस एकेश्वर का प्रकृति स्वरूप तत्वों में जो पांच ( क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा पंच तत्व से बना शरीरा ) धरती , आकाश , अग्नि , जल , हवा हैं वे ही परम सत्ता , सर्वोच्च सत्ता , परमेश्वर के प्रतीक के रूप में समग्र सृष्टि पटल में सारे तत्वों के कण – कण में वही विद्यमान है । उसका ही सम्पूर्ण पसारा है, क्योंकि ये पांच तत्व ही समग्र सृष्टि पटल में चेतन तत्त (तत्व ) के सृष्टि संचालन सम्बन्धित जितने भी विषय हैं सृजन, पालन, संहारण में सृजनकर्ता , पालनकर्ता और संहारकर्ता की सम्पूर्ण भूमिका निभाते हैं । इन्हीं तत्वों की पूर्ण व परम सत्य भूमिका सृजन स्वरूप में । उदाहरणार्थ – पुरुष में वीर्य का सृजन उत्पादन प्रकृति स्वरूप में ही उत्पन्न गौ – भैंस व अन्य पशुओं के दुग्ध , घृत अन्न गेहूं, चना, अरहर, मूंग , उड़द, मसूर तथा फल मेवे , ड्राई फूड आदि शाक -सब्जी मानव शरीर नर -नारी , स्त्री -पुरुष ) से लगाकर सभी पशु पक्षियों द्वारा किये जाने वाले भोजन आहार के खान पान से ही होता है जो बच्चों , सन्तानों की रचना में स्त्री लिंग , पुरुष लिंग रज वीर्य संयुक्त मिलकर सम भोग के माध्यम से शरीर के रूप में संरचना करते हैं। पालन, स्वास्थ, जीवनरक्षण, वृद्धि ,विकास व जीवन सम्बन्धी सभी खेलों में व्यक्ति ( नर-नारी , स्त्री पुरुष) पशु ,पक्षी आदि , कीट पतंग आदि रोगी होते हैं, इन्ही के आहार विहार में असंतुलितता से रोगी होते हैं और सन्तुलितता से स्वस्थ रहते हैं। तो प्रकृति स्वरूपा (ईश्वर – परमात्मा) माता की नियम नीति सूत्र सिद्धान्त का जीवन कार्य शैली में पूर्ण परम सत्य पालन से सत्य आहार विहार पूर्ण परम सत्य रूप में लेने , करने से । जीवन कार्य शैली के संचालन में असंतुलन ही ज्यादातर आयु को कम करता , रोग बीमारी लगकर शरीर को कमजोर करता हुआ । यदि व्यक्ति (नर – नारी , स्त्री-पुरुष ) पशु ,पक्षी अपने में सुधार सम्हाल नहीं करते हैं, नहीं रखते हैं । तो बीमारी की दशा बिगड़ते हुए मृत्यु के द्वार तक अल्पायु में भी ले जाती है और यही रुप स्वरूप व्यक्ति को, पशु पक्षियों को संहार करने का कारण बनती है। तो यह पांच तत्व ही समग्र सृष्टि पटल में चेतना युक्त प्राणियों का व चेतना युक्त व्यवस्था का सृजन करते हैं । यही पालनदाता हैं और विधाता हैं तथा संहारकर्ता हैं । इन्हीं पर ही इन्ही में ही व्यक्ति (नर – नारी , स्त्री-पुरुष ) अपने पूर्ण परम सत्य बुद्धि विवेक से सृष्टि जगद् मानव समुदाय, रूपों स्वरूपों से मिले सुख-दुःख, धोखा-दगा , छल-छद्म, झूठ-पाखण्ड, प्रेम-स्नेह माधुरीय स्वरूपों में छिपे घातों से मिले दुःख कष्ट, हानि लाभों का विचार सत्य रूप में दिल दिमाग से करते हुए संसार का, समाज का, ईश्वर का अपने कहलाने वाले , अपने होने वाले मानव स्वरूपों (नर-नारियों, स्त्री-पुरुषों) के पारस्परिक मिले / हुए कार्य व्यवहारों से, कार्य व्यापारों से उस जीवन सत्य को पहिचानों जो तुम विभिन्न विभिन्न स्वरूपीय आचारों में पारस्परिक स्वरूपों से जी रहे हो, पारस्परिक स्वरूपों में एक दूसरे के साथ ज्ञान के नाम, ईश्वरीय सत्य विधान के नाम पर एक धंधा , एक विजनिश जो मात्र अपने सुख स्वार्थ आनंद सीमा में सीमित करके परमेश्वर, परम पिता , परम माता , जगद् ईश्वर परम सत्ता , सर्वोच्च सत्ता के पर्याय के रूप में असत्य को सत्य रूप से सृष्टि जगद् में मानव समुदाय द्वारा ही मानव समुदायों भाइयों को छल छद्म झूठ पाखण्ड स्वरूप से प्रचारित प्रसारित युगों से होता चला आ रहा है । मंदिर , मस्जिद , चर्च, गुरुद्वारे ईश्वर सत्ता को, परमात्मा स्वरूप को पहचनवाने के प्रथम खड़ियापट्टी हो सकते हैं । बाकी सम्पूर्ण परमात्मा की सत्यानुभूति ,करने होने व पूर्ण परम सत्य आयाम हैं। स्वयं का आचरण चरित्र दूसरे अपने आत्मिक भाइयों (माताओं , बहिनों ,बेटियों , भार्याओं , नर-नारियों, स्त्री-पुरुषों ) के प्रति पूर्ण परम सत्य आत्मीयता आत्मवत् पूर्ण परम सत्य आत्मसुखदायी । धोखा-दगा से, छल – छद्म से, झूठ पाखण्ड से, अन्याय अत्याचारीय भावविचारीय व्यवस्था से रहित सद् व्यवहार अपने आत्मीय जनों से । सकल सृष्टि के जीव प्राणी मानवों से । कुल मिलाकर प्रकृति तत्व ही प्रत्यक्ष , शाश्वत , ईश्वरीय पूर्ण परम सत्य तत्त (सार) है । प्रकृति ही भूकम्प लाती है । प्रकृति ही भूचाल लाती है। प्रकृति ही प्रलय लाती , प्रकृति ही महाप्रलय लाती है। प्रकृति ही सृजन करती है , प्रकृति ही पालन करती है और प्रकृति ही संहारण करती है। यही पूर्ण व प्रत्यक्ष सर्वोच्च सत्ता परमसत्ता का जगद् पिता ,जगद् माता का, जगद् ईश्वर का पूर्ण परम सत्य शाश्वत स्वरूप है । इस सत्य को पहिचानों । प्रकृति सर्वेश्वरी की रीति , नीति, नियम विधान को पूर्ण परम सत्य रूप में अपनाने उस पर पूर्ण परम सत्य रुप में चलने पर कोई भी (व्यक्ति नर-नारी , स्त्री-पुरुष ) कहीं कोई दुःख कष्ट रोग बीमारी , किसी भी प्रकार का जीवन अभाव व परेशानी ताजीवन न कभी देखेगा और न कभी कोई दुःख अभाव किसी भी प्रकार का झेलेगा और न ही उसके सामने आयेगा ।क्योंकि प्रकृति माता पिता जगद् ईश्वर का ही सम्पूर्ण स्वरूप है व जीवन का सत्य है , सृष्टि का सत्य है , ईश्वर का सत्य है । इस प्रकृति स्वरूपा जगद् ईश्वर , जगदीश्वर , जगद् पिता , जगद् माता का नियम नीति विधान मानव द्वारा सत्य रूप में न मानने पर, न पालने पर , न अनुशरण करने पर ही मनुष्य ( नर-नारी, स्त्री-पुरुष ) जीवन संकट में आता है और सत्य रूप में संकट में पड़ता है एवं विनाश को प्राप्त होता है । कोई भी व्यक्ति इस पूर्ण व परमसत्य को नकार नहीं सकता है । इसलिये हे मानव स्वरूपीय आत्मिक भाइयों , माताओं , बहिनों, बेटियों, भार्याओं इस पूर्ण परम सत्य को सत्य से स्वीकार करो । और पूर्ण परमसत्य विचारवान बनकर यथार्थ सत्य , पूर्ण सत्य , परमसत्य पर वह है क्या ? आत्म बुद्धि विवेक ज्ञान ध्यान लगाकर रिसर्च करो, खोज करो । मेरे इस कथन में कितनी सच्चाई है ? यदि सत्य प्रतीत हो तो सत्य से स्वीकार करो तथा व्यर्थ की निरर्थक अनावश्यक भ्रांतियां जो निज सुख स्वार्थ की आपूर्ति हेतु लोभीय लालसाओं में डूबे वे व्यक्ति जो ऐश्वर्यमयी भोग वासनामयी इच्छाओं में रत। स्वयं में ही अन्धे,अन्धापनीय असत्य संसार समाज मानवों को परोसने वाले जिन्हे यथार्थ सत्य रूप में स्वयं ही पता नहीं है । कि उस पूर्ण परम सत्य (ईश्वर) सत्येश्वर की यथार्थता पर परदा डालकर असत्य को प्रचारित प्रसारित करके उनकी क्या गति होगी । हे संसार , समाज मानवों जागो ? और सत्य को सत्य से पहिचानों । तभी सत्य को सत्य रूप में पाओगे , सत्य को सत्य से पाओगे एवं सत्यजीवन बना पाओगे और पूर्ण निरोग सुखशान्ति आनंद परक जीवन का सुख उठाओगे तथा पूर्ण आयु निर्विघ्न रूप से जिओगे और जी पाओगे । अत: प्रकृति माता (ईश्वर-सर्वोच्चसत्ता ) स्वरूप को पूजो उसे ही आत्म साधना में अपनाओ धारण करो , मानो बस यही ईश्वर व मानव जीवन का सत्य है।
क्रमश :
– डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री “