श्री बुद्ध प्राकट्योत्सव पर विशेष : नमो श्री बुद्ध , श्री बुद्धि , श्री विवेकाय नमः
राजकुमार सिद्धार्थ को नगर भ्रमण पर संसारी व्यक्तियों की कष्ट परक स्थितियों को देखकर जिसमें व्यक्ति की वृद्धावस्था देखी जो जीवनको अन्त तक ले जाने का रूप है। दूसरा दृश्य बीमार व्यक्ति के शरीर पीड़ा को देखा जो दुःख और कष्ट से आहत था । तीसरा दृश्य फिर व्यक्ति की मृत्यु देखी जो व्यक्ति की काया को शमशान की ओर ले जा रहे थे। यह मृत्यु सभी जीवों के लिए एक निश्चित सच्चाई प्रतीत हुई। अन्त में चौथा दृश्य देखा की एक सन्यासी सांसारिक मोह से मुक्त होने व शान्ति का मार्ग प्राप्त करने की दिशा की ओर प्रयत्नरत है । इन रूप रंगीय स्थितियों को देखकर सिद्धार्थ का मन विचलित हो गया । उनके तन, मन, जीवन में एक सत्पथीय प्रेरणादायी भूचाल आ गया और वे कोई भी एक शब्दीय अपने मुखार बिन्दु से हो हल्ला मचाये अपनी भार्या को जगाये बगैर, बताये बगैर अपने घर परिवार को छोड़कर यथार्थ सत्य , पूर्ण परमसत्य , शाश्वत सत्य को जानने की प्रबल जिज्ञासा , प्रबल आकांक्षा अपने तन मन में जगाये सत्य को खोजने निकल पड़े। काफी कष्टानुभावों को करते हुए, खोजबीन और त्याग तपश्चर्या के उपरान्त वह परम सत्य जिसकी प्रबल इच्छा आकांक्षा उनके तन मन में व्याप्त थी । वह पीपल वृक्ष जिसे बोधि वृक्ष भी कहा गया है। उसके सानिध्य में राजकुमार सिद्धार्थ को परम सत्य ज्ञान प्रकाश के रूप में उनके अन्तः हृदय में प्रकाश ज्योति उद्धृत हुई। जिससे उन्हे बोधि सत्व कहा गया और उनका नाम बुद्ध हो गया । उन्होंने अपने अन्तःकरणीय आत्म सत्य को सर्वत्र सकल सृष्टि पर सर्वत्र सर्व कल्याण हेतु, सर्वत्र सर्व मंगल हेतु, परमसत्य आत्म शांति, सुख, आनंद का सत्य संदेश , संसार में फैली आत्मभ्रांतियां जो संसारीय पंच विकारीय (काम, क्रोध , लोभ, मोह, अहंकार) दिग्भ्रमीय रूप में मानव समुदाय ( नर-नारी , स्त्री-पुरुष ) को असत्य रूप में नचाये, भ्रमाये, उल्झाये , चिंता चिंतन कराये अशांत किये पड़ा है। उससे महा आत्मा श्री बुद्ध ने सत्यमुक्ति का मार्ग , सत्यसंदेश के रूप में दिया, व्यक्त किया । “अप्पो दीपो भव “ ( अपना आत्म दीपक स्वयं बनो) अर्थात् हे मानव अपने अन्तः हृदयी प्रकाश ज्योति जगाने में तुम स्वयं ही अपने सब कुछ हो अतः अपनी आत्म प्रकाश ज्योति के कारक तुम स्वयं ही बनो । श्री रामचरित मानसकी चौपाई भी उनके बताये सत्य को सिद्ध करती है। “कोऊ न काहू को सुख दुःख करिदाता, निज कृत कर्म भोग सब भ्राता ॥ “ अर्थात् व्यक्ति को सत्य मायने में किसी भी दूसरे ज्ञान, गुरु, सहायक किसी की भी अंश मात्र भी आश्रय अपेक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। सब कुछ तुम ही हो और सब कुछ परमेश्वरीय प्रकृतिसत्ता ( सर्वोच्च सत्ता ) का शाश्वत सत्य तुम में ही है। इसलिये अपने सुखदुःख , शांति अशांति, कष्ट आनन्द का मार्ग तुम स्वयं अपनी ही आत्म अनुभूति से स्वयं खोजो । अर्थात् “अप्पो दीपो भव” अपने सत्य मार्ग का सत्य दीपक तुम स्वयं बनो। अपना दीपक प्रकाश अपना उजाला करने की तुम में ही शक्ति है , तुम में ही बुद्धि है और तुम में ही विवेक है और तुम में ही वह परम सत्य आत्म प्रकाशक, आत्म उद्धारक ज्ञान है। यहाँ वहाँ कहीं किसी भी दूसरे के पास जाने भटकने, खोजने की कहीं कोई अंशमात्र भी आवश्यकता किसी भी व्यक्ति को नहीं है। यह भ्रमीय संसार है। शोषणीय मानव मनीय दोष दुर्गुणमयी मानव प्रवृत्ति है। पूर्ण परमसत्य तुम्हारे ही पास है अथवा प्रत्येक के पास है। यहाँ वहाँ कहीं किसी भी गुरु ज्ञान दाता के ज्ञान आश्रय की कोई भी किसी से किसी भी प्रकार की सहायक सहयोगी अपेक्षा की तुम्हे आवश्यकता नहीं है। तुम्ही सर्व ज्ञाता अपने स्वयं के सत्य मार्ग की ज्योति जगाता ,तुम स्वयं ही हो। इसलिये हे मानव (नर-नारी , स्त्री-पुरुष ) तुम कहीं भी किसी भी ज्ञान खोजीय रंग रूप में भटकने व किसी भी आशा अपेक्षा की चाह में भटकना बंद करो। जिसकी तुम्हे जरूरत है चाह है , वह सब कुछ तो तुम्हारे ही पास है , तुम्हारे ही भीतर है। इसकी पुष्टि महामानव सत्य तत्त वेत्ता महामानव संत कबीर भी करते हैं। ” कस्तूरी कुंडल बसै मृग ढूंढे वन माहि ” अर्थात् हिरण की नाभि में कस्तूरी रहती है और वह तन मन को विचलित करते हुये जंगल में ढूंढ़ता है। बुद्ध ने जीवन के सारे भ्रमीय भटकावीय रूपों स्वरूपों शंका संदेहों से पूर्ण परम सत्यमुक्ति का पूर्ण परम सत्य संदेश अपने स्वयं के प्रत्यक्ष आत्म अनुभूति परक ज्ञान प्रकाशीय ज्योति को सर्वकल्याणीय शाश्वत सत्यीय सत्य को सभी के लिए शाश्वत प्रत्यक्ष किया। अपना दीपक स्वयंबनकर अपनी आत्म ज्योति प्रकाश स्वयं अपने आत्म अनुभवों से अपनी आत्म अनुभूति से स्वयं प्रज्ज्वलित करो और उसकी छाया में सर्वजीवन सुख शान्ति आनन्द व आत्मसंतुष्टि का मार्ग स्वयंप्रशस्त करे और आत्म उद्धारक स्वयं बने, स्वयंसिद्ध हो। कहीं किसी भी जगह, किसी भी दूसरे का आश्रय न ढूंढ़े, न चाहे , न तन मन में इच्छा पाले । अपनी ही आत्मज्ञानीय, आत्म अनुभवीय, आत्म अनुभूति ज्ञान ज्योति में उसकी आत्म मस्ती में आत्म आनंद को पाये, भोगे और उठाये । “मोको (परमेश्वरीय सर्वोच्च सत्ता को आत्ममंगल करणीय आत्म उद्धारीय ज्ञान को, आत्मकल्याणीय मार्गको ) कहाँ ढूंढो रे बन्दे मैं तो तेरे पास में । “
बुद्ध ही ऐसे निर्विकारीय, निष्कामीय, निशच्छलीय आत्मवत् सर्वभूतेषु अर्थात् अपने जैसा सबको मानने वाले जिन्होंने दूसरों के लिए सबकुछ किया और अपने लिए कुछ नहीं किया । अपने घर और संसार के सुखों का त्याग करके मानव दुःखरूपी भयानक व्याधि की औषधि खोजने में अपना जीवन बिताया ।
महा आत्मा बुद्ध ने कभी किसी को अपशब्द नहीं कहा और ना ही स्वयं अपने लिए कोई अवतार , पीर, पैगम्बर, महामानव होने का दावा किया । आत्म विकास के लिए, आत्मकल्याण के लिए , आत्म उद्धार के लिए स्वयंही पुरुषार्थ श्रम और सत्य आचार का आश्रय लो । जीवन के अन्तिम क्षणों में उन्होंने कहा न तो मैं और ना ही कोई दूसरा तुम्हारा कल्याण , तुम्हारा उद्धार ना ही कर सकता है ना ही दे सकता है। उसके लिए तुम्हे स्वयं ही सत्य पूर्ण आत्म साधना आत्म त्याग और अपनी दिग्भ्रमित दिशाओं को आत्मसंयम आत्म नियंत्रण की साधना द्वारा उन्हे निर्मूल करना होगा उनसे निर्मूल होना होगा।
उनका सत्य ज्ञान दर्शन है – “जिसका मन पवित्र है आचरण और चरित्र निशच्छल,निर्विकार व शुद्ध है, उसे किसी पूजा पाठ की जरूरत नहीं है। “
-डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”