जब तक व्यक्ति ईश्वरीय / प्रकृति स्वरूपीय नियम नीति आचार विधान से नहीं चलता ? तब तक गीता, रामायण , कुरान , बाईबिल, गुरुग्रन्थ साहिब , भागवद् व अन्य धार्मिक ग्रन्थ पढ़ना -पढ़ाना, सुनना-सुनाना , स्वयं के साथ स्वयं से स्वयं का धोखा है। एवं उस सर्वोच्च सत्ता कण – कण में व्याप्त , चर अचर में व्याप्त सर्वत्र व्याप्त ईश्वर ,भगवान , परमात्मा, जगद पिता , जगद माता की ऐसी पाठ पूजा आराधना , साधना, त्याग, तपश्चर्या सम्पूर्णतया व्यर्थ और निरर्थक है एवं परमेश्वर की आखों में धूल झोंकने का प्रयत्न व उसे धोखा देने का मात्र प्रयत्न है।
उस परमसत्ता सर्वोच्च सत्ता परमेश्वर के सत्य का सत्य नियम और नीति-
सत्व गुण धारण करना, सात्विकीय प्रकृति व प्रवृत्ति का अपने जीवन संचालन में जीवन की हर क्रिया प्रक्रिया में चाहे वह उदरपूर्ति व अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति का कार्य व्यापार हो या खानपान भोजन आहार हो । वह अन्याय , अत्याचार छल छद्म झूठ पाखण्ड ,फरेब , धोखा – दगा , बेईमानी का या किसी के साथ विश्वासघातीय स्वरूप अपनाकर , ऐसा उपार्जित धान्य कुधान्य को अपने में उपयोग उपभोग नहीं करना चाहिए । जीवन परम सत्य , आत्म संयमीय होना चाहिए , आत्म नियंत्रणीय होना चाहिए । जीवन के अन्य विषयों में जैसे भोग , योग , सम भोग । परम ईश्वर की सच्ची सुखशांति। आनन्द पाने व पूर्ण परमसत्य , आत्म संतोषित रहने के लिए व उनसे सच्ची प्रीति जोड़ने के लिए ,उनका यथार्थ पूर्ण परम सत्य प्रेम ,स्नेह, दया, करूणा व अपने ऊपर उनकी सत्य दया का वरदहस्त पाने व अनुभूत करने के लिए । सर्व जगत में सर्व प्राणी जीव मानव (नर नारी , स्त्री पुरुष से) पूर्ण परमसत्य होश में आत्मवत् आत्मीयतावत् सत्य सद् व्यवहार अपने घर परिवार में सर्व जनों के प्रति जो भी कर्तव्य दायित्व हों उनका पूर्ण परम सत्य निर्वहन और सर्व जगत मानव से पूर्ण परम सद्सत्य सद् व्यवहारीय वर्ताव तथा अपने जीवन , कार्य , व्यापार ,नौकरी , शासकीय सेवा में व राज सत्ता का नेतृत्व करने वाले राष्ट्र व्यवस्था, विश्व व्यवस्था, राज्य व्यवस्था की राज व्यवस्था में संसार जन मानस के प्रति हित परक स्वरूपों में पांच विकारों ( काम, क्रोध, लोभ , मोह , अहंकार ) से पूर्ण रहित रहते हुए परमेश्वर को रिझाने के लिए इन निम्न स्वरूपों को धारण करने अपनाने का पूर्ण परम सत्य प्रयत्न करना चाहिए । जैसे- निर्लोभीयता , निर्मोहीयता, निर्लिप्तता, निष्कामिता, निश्छलीयता, निष्कपटता, और निर अहंकारिता के गुण , स्वभाव का अभ्यास निरंतर करते रहना चाहिए। यही परमेश्वर से सत्य मिलन उनकी सत्य प्रीति , उनके स्नेह की सत्यानुभूति पाने का यही पूर्ण और परम सत्य रहस्य है । इन सत्य आचारों के बिना ? स्वयं के साथ धोखा व ईश्वर के साथ धोखा है। और धोखा छल छलावा का स्वरूप प्रकृतेश्वरीय सत्य नीति में उनके फलीभूतता में कहीं उसका कोई स्थान नहीं है। इस पूर्ण परम सत्य को जानो मानो । “ कर्म प्रधान विश्व रचि राखा जो जस करै तो तस फल चाखा ॥ ” पाप आचार , पाप आचरण ईश्वरीय सत्य का मार्ग नहीं है और ना ही कभी ईश्वरीय सत्य प्रेम का आधार हो सकता है अथवा ना ही होगा। । “जागो रे जिन जागना अब जागन की बार तब क्या जागे मानवा जब कुकर्मों का अपने ऊपर लाद लिया भंडार । तब कहीं नहीं होगा तुम्हारा ये क्षम्य पाप आचार । । “
“ना वह रीझे जप तप कीन्हे, ना आतम के जारे , ना वह रीझे धोती टांगे , ना काया के पाखारे, दाया करे धरम मन राखे (आत्मवत् प्रेम हृदय में राखे) हदय रहे उदाासी , अपना सा दुःख सबका जाने ताहि मिले अविनाशी । । “
– डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”