संसार के व्यक्ति (नर-नारी, स्त्री-पुरुष), व्यक्ति के मिलने से शारीरिक, मानसिक, ऐंद्रिक (इन्द्रिय जनित) सभी आकर्षण सर्वांगीण और निरर्थक हैं। (उनके पूर्ण होने पर, मिलने पर, प्राप्ति पर तन – मन – जीवन – इन्द्रियों को सुख की अनुभूति होना, अनुभूति करना और न पूर्ण होने पर, न मिलन पर, प्राप्त न होना पर तन -मन -जीवन – इन्द्रियों को अति दुःख असाध्य दुःख, अति कष्ट, शारीरिक – इन्द्रियजनित वेदनाओं की भावना। जो हृदय विदारक होती है। जो शारीरिक मानसिक विकारों के रूप में जन्म लेती है। नर-नारी, स्त्री-पुरुष ऐसा कहा जाता है कि आत्मघाती कदम भी उठाता है, उठाता है। जो प्रत्यक्ष सारा समाज दिखता है और भोगता है ,जीवन सुख इंद्रियों के सुख, आनंद भोगने की। परंतु लोक लाज वश सामाजिक अति दुरुह्य, अतिकिलिष्ट नियम नीति जो परम सत्य है उसके लिए सत्य के दृष्टिकोण की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वे ही सामाजिक नियम नीति बनाते हैं, अच्छे बुद्धि वाले, चरित्रवान का तमगा स्थान, धर्मान्धता का आचरण करने वाले, चिपली-कपटी, झूठ-फरेबी, असत्य, अन्यायी अत्याचारी, तनमनभित्र से रहने वाले छुपकर वे ही दुराचार, अनाचार, व्याभिचार स्वयं और करवाते हैं। वे ही अनीतिशास्त्र राह पर रहते हैं और लोगों को जो अपने पिछलग्गू, चापलूसी, गुलामी करने वाले चोर ही अपने आरक्षण का हथियार तोड़ते हैं। तो यह है समाज के धर्म का ज्ञान सिखाने वाले, धर्म की शिक्षा देने वाले, उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के उपदेश देने वाले, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के अनुयायी, धर्म के उपदेश देने वाले तस्वीर। इसलिए मानव परम व पूर्ण नैतिक सत्य सत्यनीति युक्त जीवन बनाओ और पूर्ण सत्य से उसे जिओ। निर्विकारी बनो, निर्विचार बनो, निर्लिप्त बनो, निष्कामीय बनो, निर्मोही, निर्लोभी, निरहंकारी बनो, निश्चलीय बनो, निष्कपति बनो, निश्चिंत बनो। यही परम सत्य साधना है जो परम सत्य सत्येश्वर को भाती है और परम सत्य सत्येश्वर की प्रियता का पूर्ण परम सत्य सत्पात्र बनता है। तो यह है पूर्ण परम सत्यजीवन जगत का सत्य रहस्य, पूर्ण परम सत्य अध्यात्म व पूर्ण परमसत्य ईश्वर, परम सत्ता वह एकेश्वर की सत्यप्रियता, सत्य पूजा साध्य का पूर्ण परम सत्य रहस्य। ।।

“माला मो से लड़ तू क्या फेरे मोय।

जो मन फेरे जगत् से राम मिलाऊं तोय॥ “

“कबीर मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर।”

पाछे लागे हरि फिरे कहे कबीर कबीर॥ “

“निर्मल जन मोहि सोइ मोहि भव।”

मोहि न कपट छल छिद्र दुरावा॥ ” 

“संत सहिये दुःख पर हित लागी।”

पर दुःख दुःख असंत अभागी। ”

“ना वह रीझे जप तप कीन्हे।”

ना आत्मा के जरे।

ना वह रीझे धोती टांगे।

ना काया के पखारे।

दया करे धरम मन राखे दिल रहे उदासी।

अपना सा दुःख सबका जाने ताहि मिले अज्ञानी॥ “

“अगर है शौक मिलने का, तो हरदम लौ लगाता जा,
जलाकर ख़ुदनुमाई को, भसम तन पर लगाता जा।

पकड़कर इश्क की झाड़ू, सफा कर हिज्र-ए-दिल को,
दुई की धूल को लेकर, मुसल्ले पर उड़ाता जा।

मुसल्ला छोड़, तसवी तोड़, किताबें डाल पानी में,
पकड़ तू दस्त फरिश्तों का, गुलाम उनका कहाता जा।

न मर भूखा, न रख रोज़ा, न जा मस्जिद, न कर सज्दा,
वजू का तोड़ दे कूजा, शराबे शौक पीता जा।

हमेशा खा, हमेशा पी, न गफलत से रहो एकदम
नशे में सैर कर अपनी, ख़ुदी को तू जलाता जा।

न हो मुल्ला, न हो बह्मन, दुई की छोड़कर पूजा,
हुकुम शाहे कलंदर का, अनल हक तू कहाता जा।

कहे ‘मंसूर‘ मस्ताना, ये मैंने दिल में पहचाना,
वही मस्तों का मयख़ाना, उसी के बीच आता जा।”

धड़कता हूँ प्राणियों की धड़कनों मे मैं ही , दीन दुखियों के दिलों की सिसकियों में मैं ही हूं, राम और रहीम अब भी आते हैं, संप्रदाय से प्यार करना जिन्हे है। छोड़ दे छल दंभ को झूठ पाखंड और घमंड को, मसाथ से प्रेम कर, आत्मा का मूल सत्य हृदय से स्वीकार कर, उत्सवों को खोल ले और सत्य को जान ले मोक्ष ले यही मेरा निवास है, यह निश्चित तू पहचान ले, उस अखिलेश्वर का सार यही है, भगवान को पाने का मूल आधार यही है .

समग्र सृष्टि पटल में सबसे पूर्ण परमसत्य आत्मवत् प्रेम करो। छल , मैकेनिकल , झूठ ,पाखंड , धोखा , दगावस्तु , अन्याय अनुपयोगी , निश्छलीय , निष्कटीय प्रेम करो । सहज सत्य नागारिथि प्रेम से जो कुछ प्राप्त हुआ हो उसे ईश कृपा, स्नेह, प्रेम माने गए भगवान के सदैव कृतज्ञ रहते हैं वह सर्वेश्वर का रथ अंतः हृदय से प्रकट होकर ग्रहण करो। जो मिले ईश प्रसाद ले लो। ना मिले तो अपना कुछ सत्य दयालु परमपिता परमपिता परमपिता परमात्मा को उनकी दया, कृपा, प्रेम, स्नेह मानते हुए प्रभु माता की मस्ती में पूर्ण परम सत्य, आत्म धैर्य से, आत्म संतोष से जीवन सत्यो शामिल हैं। ।।

– डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”

 

 

 

Share.