असत्य का वरण व सत्य का त्याग

रिपोर्ट:डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”

व्यक्ति की नैतिक पतनीय मानसिकता, मनोसोच मात्र निज सुख स्वार्थ में अन्धे , बे-ईमान अर्थात् असत्य का वरण व सत्य का त्याग, आत्मीयता, मानवता भूलकर किसी भी दूसरे के प्रति असंवेदनशीलता ने मानव को दानव बना दिया है।

सर्वत्र हाहाकार मची है । सत्य मायने में कहीं कोई किसी का सत्यरूप में , सत्य रूप से नहीं है । सत्य से निरन्तर मानव दूर होता चला जा रहा है। सर्वत्र आपाधापी , अराजकता का माहौल है व चल रहा है ।

भ्रष्ट्र आचरण निज सुख स्वार्थ का अन्धापन भोग, वैभव, ऐश्वर्य की आकान्क्षायें चाहे सत्तारूढ़ शासक वर्ग हो , या शासकीय अधिकारी हो या कर्मचारी वर्ग हो अथवा इस सृष्टि पटल का जनमानस हो ।

ज्यादातर सभी एक दूसरे की आँखों में धूल झोंकने, छल छद्म झूठ पाखण्डीय नीति रीति से ओतप्रोत होकर एक दूसरे को धोखा देते हुए लूटने ठगने में स्वयं को करोड़पति अरबपति बनने व अपनी सात पीढ़ियों के सुखभोग की इच्छायें आकांछाये पाले हुए अनाचार , दुराचार , भ्रष्ट्र आचार से कहीं भी किसी भी दूसरे का अहित करने व हत्या मर्डर करने कराने की सोच पाले ज्यादातर अधिकांश मानव असत्यीय गुमराही की ओर चल रहा है,

बढ़ रहा है । अब अधिकांश मानव ने तो पांच विकारों को ( काम , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार को) अपने तन , मन , जीवन का अंग व रंग बना लिया है। हत्या, मर्डर , चोरी , बलात्कार अनाचार , दुराचार , व्याभिचार तो जीवन के फैशन स्वरूप हो गये हैं, बन गये हैं।

” यथा राजा जथा प्रजा ”  एक जीवन आचार हो गया है। अधिकांश मानव मन में भ्रष्ट्र आचरण, भ्रष्ट्र चरित्र अपने अन्तः हृदय में बसाता चला जा रहा है। कहीं कोई किसी का शासन सत्ता हो या समाज सत्ता कहीं कोई भय, डर नहीं। किसी का किसी पर जो सत्य कर्तव्यीय दायित्वीय यथार्थ पूर्ण परम सत्य परमेश्वर तत्तीय सत्य अनुशासन है वह कहीं नही दिखाई देता है।

किसी भी मानव हृदय में चाहे वह सत्तारूढ़ शासक वर्ग हो जो प्रजातंत्र की सत्य न्याय की दोहाई देने वाले व सत्ता रुढ़ राजनेता , न्यायी व्यवस्था को सत्य रूप से अंजाम देने वाले रूपों स्वरुपों में हों। छल ,छद्म, झूठ , अन्यायी, अत्याचारीय , लोभ, लालच की वशीभूतता उनकी मनोसोच में आती जा रही है। जिससे सत्य न्याय मिलने की आशा धूमिल होते हुए असत्यीय रुप ले रही है। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची है ।

अराजकता ,अनुशासन विहीनता व्यक्ति के अति अति नैतिक पतन परक भाव विचारीय हो जाने के कारण तथा जो वास्तव में प्रकृति स्वरूपीय ईश्वरीय सत्ता है उस परमेश्वरीय सर्वोच्च सत्ता का कहीं कोई उस परम सत्य निर्मोही , निर्लोभीय , निरहंकारीय, निष्कामीय, निर्लिप्तीय, सर्व समर्थ, सर्व शक्तिमान , सर्वपालक , सर्व सुखदाता, सृजनकर्ता ,पालनकर्ता , संहारण कर्ता का कहीं कोई सत्य महत्ता , उसका सत्य अस्तित्व , उसकी सत्य शक्ति का आभास लग रहा है अथवा प्रतीत होता है कि सृष्टिमानव भूलता चला जा रहा है I वैसे वह परमात्म सत्ता , प्रकृति सत्ता वह शक्ति है । एक भूकम्प में, एक भूचाल में प्रलय स्वरूप दिखलाकर बड़ी – बड़ी अट्टालिकायें , महल , अटारी ,धन , वैभव , जीवन , ऐश्वर्य क्षणों में मिटा देता है अथवा जमींदोज कर देता है। उसकी अनुभूति को सृष्टि में विद्यमान पांच तत्वों में ” क्षिति ,जल , पावक , गगन , समीरा। पांच तत्व से बना शरीरा ॥ ” जो प्रत्येक क्षण शाश्वत प्रत्यक्ष है I

प्रत्येक जीव प्राणी मानव के अंग संग सुखदाता , आनंद दाता प्राणों के रक्षक है। इस शरीर को मानव अपनी दुर्बुद्धि से लोभ , लालच, मोह , आसक्ति पालकर छल छद्म झूठ पाखण्ड, धोखा दगा , अन्याय अत्याचार करके अपनी पद प्रतिष्ठा , यश मान , कीर्ति का एवं धन वैभव शक्ति सबलता के बल पर नश्वर शरीर को अमर समझते हुए अपनी दुर्बुद्धि का परिचय अपने से निर्बल दुर्बल , शक्तिहीन , धन हीन , शिक्षाविहीन , अनपढ़ दारिद्रीय लोगों को अपनी शक्ति से उन्हे भयाक्रान्त माहौल देकर अपनी चतुराई चालाकी होशियारी सबलता से उन दीन हीन लोगों का हर तरह से दोहन , शारीरिक , मानसिक , आर्थिक , दैहिक, श्रमीय रूपों स्वरूपों का भरपूर शोषण ऐन केन प्रकारेण , साम – दाम – दण्ड – भेद नीति अपनाकर अपने से दबे कुचले गिरे कमजोर लोगों की जान लेने से भी परहेज ना करने , ना रखने के षड्यंत्र कर रहे हैं रचरहे हैं । अज्ञानी अंधता अहंकारिता जिनके सर पर चढ़ी है रावण की भांति , कंस की भांति , दुर्योधन की भांति । हे चतुर चालाक होशियार अन्यायी अत्याचारी अज्ञानीय अंधे दानव स्वरूपीय मानव सोच ? क्या तू ने अपने जीवन काल में देखा नहीं, लाख का लीख हुआ और लीख का लाख । यह तन ,मन ,दिल ,दिमाग , धन, दौलत , वैभव ,ऐश्वर्य ,शक्ति सम्पन्नता विशाल संग्रहीत साम्राज्य को पूर्णतया किसने भोगा । इस अनैतिक तरीके से संग्रहीत किये गये धन वैभव , ऐश्वर्य को सदैव शरीर अंगों की सबलता से कितना कौन भोग पाया । अनीति अन्याय अत्याचार किसका कब साथी हुआ , कब साथी रहा । सोच? देख? चिंतन मनन कर और हे मानव अपना सत्य होश सम्हाल ।

ईश्वरीय सर्वोच्च सत्तायी नियम नीति को समझ जो आदिकाल से सृष्टि के सृजन काल से आज तक अपनी सत्य नीति रीति से सबल सशक्त सर्वोपरि सर्वशक्तिमान सत्य न्याय दाता सत्य न्यायकर्ता , सत्य सर्वसमर्थ , सत्य सृजनकर्ता , सत्य पालन कर्ता , सत्य संहारकर्ता है । जो क्षण में एक छोटी सी किरणीय प्रलय की झलक दिखाकर करोड़ो जीवन विशाल महल अट्टालिकायें , धन सम्पत्ति वैभव पूर्ण ऐश्वर्यमयी रूपों स्वरूपों को छिन्न भिन्न करके अपनी प्रकृति स्वरूपा धरती माता में समाहित कर लेता है ।  उसकी शक्ति सामर्थ्य सत्य न्यायिक दृष्टि दर्शन का सत्य वर्णन महामानवों द्वारा – “हे मानव गर्व न कीजिए , काल कहे कर केस । ना जाने कित प्राण हरण कर ले , की घर के परदेस ॥ ” ” पानी केरा बुदबुदा , अस मानुस की जात । देखत ही छिप जायेगा , ज्यों तारागण प्रभात ।। ” ” मन चाही होवे नही , प्रभु चाही तत्काल । बलि चाह्यो स्वर्ग को , प्रभु भेज्यो पाताल ॥ ” ” किस काम का जो लाखों का तोड़ा कमाएगा , रथ हाथियों का झुण्ड भी न तेरे काम आयेगा , निर्वस्त्र तू यहां आया है और निर्वस्त्र ही तू जायेगा । छूटेगी यहीं की यहीं पर तेरी कमर में न धेला रहेगा । अरे मन ये दो दिन का मेला रहेगा।” ” आवत संग न जात संगाती , कहा भयो दर बांधे हाथी । ।”  ” बुल बुल (कोयल ) से कहो कि गुलों (फूलों ) पर ना हो निसार, पीछे खड़ा सैय्याद हो खबरदार, मार कर गोली गिरा ली जायेगी, जब तेरी डोली निकाली जायेगी बिन मुहूर्त के उठा ली जायेगी । ऐ मुसाफिर क्यों चिपटता है यहां, क्यों बेईमानी से लिपटता है यहां , यह नश्वर शरीर धनसम्पत्ति है , इसे सत्य से क्यों कमाता नहीं है यहां। जिससे बनेंगे रहेंगे तेरे दोनों जहाँ , बस ऐसा ही जीवन बना अपना ॥” ” का मांगू कछु थिर न रहाई , देखत नैन चला जग जाई । लंक सी कोटि समुंद्र सी खाई, ता रावन की खबर न पाई । एक लख पूत सवा लख नाती , ता रावन घर दिया न बाती । कहे कबीर अंत की बारी हाथ झाड़ि ज्यों चले जुआरी ।। “

हे मानवों ! होश में आओ ? पद प्रतिष्ठा यश मान के छद्म स्वरूपों में मद मस्ती में । कीर्ति के मद में धन सम्पत्ति वैभव, सबलता के मद में आकर न्याय का गला घोंटते हुए सत्य न्याय, सत्य जीवन की होली मत जलाओ । प्रकृतेश्वरीय ईश्वरीय सत्ता के सत्य न्याय से डरो। उसे मत भूल जाओ । प्रकृति माता की अग्नि जनीय एक किरण , एक लौ कितना विशाल स्वरूप भस्म कर देती है। कितने जीवन निगल लेती है। हो सकता है उस स्वरूप के ग्रास हम या तुम ही हो जायें । इसलिये सत्य (ईश्वर) को सत्य से स्वीकारो और सत्य में सत्य से जिओ तथा अपने आत्मिक भाइयों को, आत्मिक माताओं बहनों को, आत्मिक बेटियों भार्याओं के साथ इस सिद्धान्त पर – “ तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि, तुझमें है सारा संसार । इसी भावना से अन्तर भर मिलूं सभी से तुझे निहार । ”  आत्मा सत्य व्यवहार आत्मसत्य रूप से प्रयुक्त करो । स्वयं सत्य जीवन बनाओ और दूसरों को भी सत्य आनंदमयी जीवन जीने दो , जीने के लिए प्रोत्साहित करो। यही परमेश्वर के सत्य न्यायी राज्य का सत्य संदेश है। प्रिय आत्मिक भाइयों धन कमाना ,सत्य सुख भोगना, जीवन आनंदमय स्वरूप से बनाना जीना बुरा नहीं है । बस सत्यन्याय नीति से धनकमाओ, सत्य आचार से वैभववान बनों, सत्य श्रम मेहनत ईमानदारी ,पूर्ण परम सत्य आचार आचरण से ऐश्वर्यवान बनो । जहां भी हो जैसे भी हो सत्य न्यायी कर्तव्य से सत्य न्यायी दायित्व से अपने कर्म कर्तव्य सत्यरूप से निर्वहन करो। यही मानव ( नर नारी, स्त्री पुरुष) समुदाय के जीवन का उस परम सत्ता सर्वेश्वर जगत् पिता जगत् माता का जप , तप , साधना , आराधना , पाठ, पूजा , श्री गीता, रामायण, कुरान, बाईबिल, गुरुग्रन्थ साहिब का स्वरूप होगा। दीन ,हीन, दुखियों के दारिद्रय हरण, वेदना हरण का एवं सुख शान्ति आनंद का सत्य स्वरूप होगा ।

जागो रे जिन जागना, अब जागन की बार । तब क्या जागे मानवा , जब पाप कर लिये इकट्ठे हजार । फिर तो उन्हे भोगना ही पड़ेगा प्रकृतेश्वरी के नियम नीति के आधार , नियम नीति के आचार ।

– डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”

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