उपरोक्त शास्त्रोक्त सत्य वचन यह पूर्ण परम सत्य रूप में सिद्ध करते हैं । कि यह ऊंच नीच ,छोटी बड़ी वर्णगत व्यवस्था परम सत्ता सर्वोच्च सत्ता प्रकृति सत्ता परम ईश्वरीय सत्तागत नहीं है । यह मानव द्वारा ही निज सुख स्वार्थ से ऐश्वर्यीय भोग वैभव भोगने पर एकाधिकार रखने व अपने को विशेष सिद्ध रखने विशेष सिद्ध सदैव करते रहने , होते रहने की मात्र लोभ लालसा से प्रेरित महज एक असत्य षड्यन्त्रीय उपज मात्र है।
अर्थात् यह ईश्वरकृत नहीं । मानवकृत हैं मनुष्य द्वारा सारे पापमयी अपराधमयी कृत्य ज्यादातर वर्णव्यवस्थायी स्वरूप से होते हैं। अपने ही जैसे समान व्यक्ति को आत्मवत् न मानने से काम, क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार का पोषण होता है और उससे ही अन्यायी अत्याचारीय गतिविधियां मानव द्वारा ( नर नारी , स्त्री पुरुषों द्वारा ) एक साजिशीय सक्रिय रूप में मनोभूमि द्वारा उत्प्रेरित होती है । विभिन्न अपराध व्यक्ति चोरी , डकैती , हत्या , बलात्कार, छल , छद्म, झूठ पाखण्ड की सम्पूर्ण संरचना स्वरुपीय । उपरोक्त स्वरूपीय पाप व्यक्ति द्वारा व्यक्ति के प्रति किया जाता है । होता है । अर्थात् यहीं से व्यक्ति के कार्य बिगड़ते हैं । नियत खराब होती है और पाप का सृजन होता है। जिसे अवश्य ही मनुष्य को अपने कर्मों के परिणाम स्वरूप भोगना पड़ता है। तो यह है मानव तन मन में पाप के उद्भव का मूल ।
– डा० बनवारी लाल पीपर ” शास्त्री”