संसार , जीवन , उच्चवर्ण , निम्नवर्ण विडम्बना
समान क्रिया कलापीय मानव को असमानीय बना देना । जातीय घृणीय भेद का सृजन कर देना । इससे बड़ा मानव द्वारा मानव के प्रति , यदि पाप और पुण्य कहीं होता है तो यह पूर्ण परम सत्य पाप का ही स्वरूप है । समान मानव का वर्गीकरण का छोटा बड़ा स्वरूप बड़ी विषमता की खाई बनाने वाला और त्राहि – त्राहि मचाने वाला असमय में मानव (नरनारी , स्त्री पुरुष ) को मौत की नींद सुलाने वाला , मौत कराने वाला आयुकाल से पहिले ही प्राणों का हरण कराने वाला वह विषय ? जो चंद लोगों को धन, ऐश्वर्य , भोग , सुख , आनंद देता है और बहुत लोगों का जीवन बर्वाद करके जान लेता है। अथवा हजारों ,लाखों , करोड़ों घरों को घर परिवारीय मानवों को दुःख दर्द मयी परिवार बर्बादी का पीढ़ी दर पीढ़ी अंधकार देता है । और वर्षों वर्षों तक परिवार को जीवन अंधेरों से उबरने नहीं देता है। ए भारत के सत्य ( ईश्वर) प्रेमियों जागो और यह अति पापमयी ऊंच-नीच , छोटे -बड़े का जातीय स्वरूप मानव – मानव में असमानता का जहर घोलने वाला भेद भावों को फैलाकर खून की होली पारस्परिक रूप में खिलाने वाला , दंगा फसाद कराने वाला , अन्याय अत्याचार को बढ़ाने वाला यह असत्य भारत देश से भारतीय समाज से इस विषैले वृक्ष को जड़ से काटो , हटाओ , मिटाओ , समाप्त करो । यही हम सब की पूर्ण परम सत्य बुद्धिमत्ता होगी, रहेगी । “मानव – मानव एक समान यही है परमसत्ता , परमेश्वरीय सत्ता , सर्वोच्च सत्ता , प्रकृति सत्ता के सत्य की सत्य पहिचान । ” वर्णभेदीय, वर्ग भेदीय स्वरूप पारस्परिक विद्रोहात्मक है । अन्याय परक है इसे तिरोहित कर दो । सर्व विकासीय कल्पना तभी सिद्ध होगी सम्पूर्ण एक धारा का समाज होगा । तभी वैमनुष्यता का कहीं कोई प्रभाव नहीं होगा और ना ही रहेगा । भारतीय समाज में देश में समान एक वर्ण होगा । पारस्परिक प्रेम की गंगा बहेगी । सर्व लोगों में सर्व मानवों ( नरनारी – स्त्री पुरुषों ) में पूर्ण परमसत्य सुखचैन की वंशी बजेगी । सर्व कल्याणमयी मंगलमयी भारत का जनमानस होगा । परमेश्वरीय परम सत्ता , ईश्वरीय परम सत्ता प्रकृति स्वरूपा की प्रियता व मानवीय सत्ता की पारस्पारिक प्रियता , आत्मीयता , एकता का पूर्ण परम सत्य उपरोक्त मूल है। एवं पूर्ण परमसत्य अभेदीय प्रेम का सर्वमंगलमयी मूल आधार है। परमेश्वर की सर्व व्यापकता का व सभी में व्यापकता के निम्न श्रीमद् भागवद् , श्री मद् भगवद् गीता के आत्मवत् समानता के सत्य प्रमाणित सत्य स्वरूपों का उदाहरणों का निम्न वर्णित स्वरूप देखें –
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किं च जगत्यां जगत् ।
तेेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य धनम् ॥
( शुक्लयजुर्वेद अ० ४० । १ )
जगती में यह जो कुछ भी जड़ चेतन जग है । सब ईश्वर से व्याप्त, उसी से यह जगमग है। । ईश्वर को रख साथ त्यागपूर्वक भोगो सब । धन किसका है ? होओ मत आसक्त कभी अब ॥
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन : ॥ ( गीता ६ । २९ )
सब भूतों में स्थित आत्मा है, आत्मा में हैं भूत अशेष । योगयुक्त सबमें समदर्शी योगी की यह दृष्टि विशेष ॥
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ( गीता ६ । ३० )
जो मुझको सर्वत्र देखता है, मुझमें देखे सारा दृश्य । उसके लिये अदृश्य नहीं मैं , वह भी मुझसे नहीं अदृश्य ॥
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित : ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ ( गीता ६ । ३१ )
सब भूतों में स्थित मुझको जो भी भजता है रख एकीभाव । वह योगी रह सब प्रकार से मेरे हित करता बर्ताव ॥
आत्मोपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुखं स योगी परमो मतः ॥ ( गीता ६ । ३ २ )
जो अपनी ही भांति देखता है सबमें सुख – दुःख समान ।
अर्जुन ! वह माना जाता है योगी सबसे श्रेष्ठ महान् । ।
बहूनां जन्मनामने ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ ( गीता ७ । १९ )
बहु जन्मों के अन्त जन्म में जो मुझको भजता सज्ञान । ‘ सब कुछ वासुदेव है ‘ – यों वह महापुरुष दुर्लभ मतिमान् ॥
खं वायुमग्निं सलिलं महीं च
ज्योतींषि सत्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं
यत्किंच भूतं प्रणमेदनन्यः ॥ ( श्रीमद्भागवत १ १ । २ । ४१ )
नभ अनिल अनल जल पृथ्वी रवि शशि तारे | सब जीव चराचर दिशा द्रुमादिक सारे।। सर सरिता सागर सबकुछ श्रीहरिका तन । यह जान करे सबका अनन्य अभिवन्दन ॥
मनसैतानि भूतानि प्रणमेद् बहु मानयन् ।
ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ॥ ( श्रीमद्भागवत ३ । २९ । ३ ४ )
इन सब भूत -प्राणियों में सर्वेश्वर भगवान् ने ही अपने अंशभूत जीव के रूप में प्रवेश किया है – यों मानकर सब प्राणियों को अत्यन्त आदर देते हुए सबको मन – ही – मन प्रणाम करना चाहिये।
हरि : सर्वेषु भूतेषु भगवानास्त ईश्वरः ।
इति भूतानि मनसा कामैस्तैः साधु मानयेत्।। (श्रीमद्भागवत ७ । ७ । ३२ )
समस्त भूत – प्राणियों में सर्वेश्वर भगवान् श्री हरि विराजमान हैं , यों अपने मन में समझते हुए उन सबको इच्छानुसार वस्तुएं देकर भली भाँति सम्मानित करना चाहिये।
या देवी सर्वभूतेषु प्रकृति रूपेणु संस्थिता ।
नमस्तस्यै , नमस्तस्यै , नमस्तस्यै नमो नमः ॥
वह परम सत्य अपने सम्पूर्ण प्रत्यक्ष रूप में प्रकृति के प्रत्येक रूप में विद्यमान है। क्षिति ,जल ,पावक ,गगन , समीरा । इन पांचों तत्वों से पूर्ण चेतना मयी है यह जीव , प्राणी , मानव ( नर नारी , स्त्री पुरुष ) बना शरीरा ॥ मानव की कहीं कोई जाति नहीं । मानव – मानव सब एक समान हैं। यदि जाति है तो जीव प्राणी , पशु , पक्षी को ही मानव शरीर से अलग स्वरूपीय अवश्य कहा जा सकता है। परन्तु जीवात्मा पूर्णचेतना मयी आत्मा सर्वरूपों में समान है । यह उपरोक्त सूत्र सिद्धान्त यह सिद्ध करते हैं । कि परमेश्वरीय स्वरूपीय प्रकृति सत्ता सर्व रूपों में समान है। और जो लोग असमान स्वरूप का परम सत्ता को व्यक्त करता है अथवा समझता है वह पाप आचारी है। पाप स्वरूप है। यही पाप की यथार्थ व्याख्या है।
क्रमश:
– डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”