1 . तन-मन-जीवन कर्म के किसी सत्य जीवन निर्माण अपेक्षित सूत्र , सिद्धान्त , आयाम से गिर जाना, हट जाना, गिरा लेना, बुद्धि विवेक, सत्य ज्ञान अनुभव अनुभूति को भी शारीरिक मानसिक रूप से नकारते रहना । स्थिति परिस्थितियों से भी सीख न लेना, तन-मन-जीवन बुद्धि विवेक को इतना दिग्भ्रमित कर लेना, जीवन के किसी भी सत्य को देख न पाना । ऐसे लोगों का,व्यक्तियों का चाहे बाल हो या बालक, युवा हो या युवती , नर हो या नारी , स्त्री हो या पुरुष। फिर पूरा जीवन संभल पाना अति अति अति दुस्तर , टेढ़ी खीर अथवा अपने को संभालना कठिन से कठिन हो जाता है। फिर कोई बिरला ही अपने को गिरने से उठा पाता है , बचा पाता है। अन्यथा पूरा जीवन भटकता हुआ जीवन के सही मार्ग पर लौट नहीं पाता है। अन्ततः नष्ट भ्रष्ट होकर जीवन चलता ,चलाता है और नष्ट हो जाता है । यदि सत्य बुद्धि विवेक हो ? तो पहले ही अपने को गिरने न दे , गिरने से बचा ले । तो जीवन सत्य पटरी पर चलते हुए आनंदमयी व यथार्थ सत्य कार्यपरक जीवन बन जाता है। ।
2 . ज्ञान वह नहीं जो संसार समाज में बहश कराये आदमी को आदमी से लड़ाये तथा व्यक्ति को स्वयं ही अपने स्वयं के मूल कार्यों से भटकाये , भ्रमाये, घुमाये और बरबाद कर डाले व सम्पूर्णतया बरबादी दे जाये । पूर्ण परम सत्य ज्ञान वह है, जो व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन को बनाये आगे पूर्ण परम सत्य विकास पर, कल्याण पर, मंगलमयी आनंददायी मार्ग पर पूर्ण परम सत्य रूप में ले जाये, आगे बढ़ाये , व्यक्ति के स्वयं के आवश्यकीय जीवन पद्धति को रुप दे , रंग दे व पूर्ण परम सत्य रूप से अपने कर्म रुपीय कर्तव्य दायित्व को पूर्ण परम सत्य ईमानदारी से पूर्ण कराये , स्वयं अपना जीवन महकाये , चमकाये व परम सत्य सुखशांति आनंदमयी जीवन आत्मिक संतोषयुक्त रुप से जीवन को जियाये ॥
व्यक्तिगत अनुभव अनुभूति परक : – व्यक्ति को अपना जीवन पूर्ण परम सत्य मार्ग सेे ही सत्य आचार , अनुभव, अनुभूति का पालन करते हुये पूर्ण ईमानदारी से सम्पूूर्णतया छल , छद्म, झूठ , पाखण्ड , अन्याय , अत्याचार , धोखा, दगा से बचते हुये बचाते हुए चलना , चलाना चाहिये । इससे बड़ी जीवन कर्मीय परम सत्य आत्म साधना व त्याग तपश्चर्या स्वयं के प्रति ,संसार समाज के प्रति व परम सत्ता सर्वोच्च सत्ता परम ईश्वर की प्रियता स्नेहिता की प्राप्ति के दृष्टि दर्शन से और कहीं कोई अन्य नहीं है ॥
– डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”