सत्य तत्त (सार ) वेत्ता महामानव , राष्ट्रकवि श्री मैथली शरण जी गुप्त एवं महामानव सत्य तत्त वेत्ता श्री रामधारी सिंह जी ‘दिनकर’ की परम सत्य यथार्थ सत्य जीवन कर्म जाग्रति , सत्य कर्म आधार , स्वाभिमान रक्षक प्रेरणादायी रचनायें । जो मृतप्राय,आलस्य, अकर्मण्यता, कापुरुषता, बुद्धि विवेक विहीनता का क्षरण करके अथवा नष्ट करके , समाप्त करके आत्मसत्य चेतना जागृति तन मन में शक्ति मंत्र फूंकने वाली शब्द अमृत बिंदु अथवा अमृत सूत्र सत्य सिद्धान्त ।
नर हो न निराशकरो मन को । कुछ काम करो, कुछ काम करो ।।
जग में रहकर कुछ नाम करो । कुछ काम करो, कुछ काम करो ॥
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो , समझो जिससे यह व्यर्थ न हो । कुछ तो उपयुक्त करो तन को, नर हो न निराश करो मन को ॥
संभलो कि सुयोग न जाये चला, कब व्यर्थ हुआ सद् उपाय भला । समझो जग को न निरासपना , पथ आप प्रशस्त करो अपना ॥
अखिलेश्वर है अवलंबन को, नर हो न निराश करो मन को । कुछ काम करो , कुछ काम करो ॥
जब प्राप्त तुम्हे सब तत्व यहाँ , फिर जा सकता वह सत्व कहां । तुम स्वत्व सुधा रस पान करो , उठके अमरत्व विधान करो ॥
दब रुप रहो भव कानन को, नर हो न निराश करो मन को । निज गौरव का नित ध्यान रहे, हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे ॥
मरणोत्तर गुंजित गान रहे , सब जाये अभी पर मान रहे । कुछ हो न तजो निज साधन को, नर हो न निराश करो मन को । ।
प्रभु ने तुमको कर दान किये , सब वांछित वस्तु विधान किये । तुम प्राप्त करो उनको न हो , फिर है यह किसका दोष कहो । ।
समझो न अलभ्य किसी धन को, नर हो न निराश करो मन को ।किस गौरव के तुम योग्य नहीं, कब कौन तुम्हे सुख भोग्य नहीं ॥
जन हो तुम भी जगदीश्वर के ,सब हैं जिसके अपने घर के । फिर दुर्लभ है क्या उसके जन को , नर हो न निराश करो मन को ॥ कुछ काम करो , कुछ काम करो ।
करके विधि वाद न खेद करो , निज लक्ष्य निरंतर भेद करो । बनता बस उद्यम ही विधि है, मिलती जिससे सुख की निधि है ॥
समझो धिग् निष्क्रिय जीवन को , नर हो न निराश करो मन को । कुछ काम करो , कुछ काम करो , जग में रहकर कुछ नाम करो ।।
श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’
हे वीर पुरुष पुरुषार्थ करो, तुम अपना मान बढ़ाओ अपनी इच्छाशक्ति के बल पर उनको जवाब दे आओ ना । वे वीर पुरुष होते ही नहीं जो दूजों को तड़पाते हैं , वे वीर पुरुष सच्चे जो दूजों का मान बढ़ाते हैं । इतना जल्दी थक जाओ नहीं, चलना तुमको अभी कोसों है। पाण्डव तो अभी पांच ही हैं कौरव अब भी सौ सौ हैं। वर्षों तक वन में घूम-घूम,बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,पांडव आये कुछ और निखर।सौभाग्य न सब दिन सोता है,देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,सबको सुमार्ग पर लाने को,दुर्योधन को समझाने को,भीषण विध्वंस बचाने को,भगवान् हस्तिनापुर आये,पांडव का संदेशा लाये।
दो न्याय अगर तो आधा दो,पर इसमें भी यदि बाधा हो,तो दे दो केवल पाँच ग्राम,रक्खो अपनी धरती तमाम। हम वहीं खुशी से खायेंगे,परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,अपना स्वरूप-विस्तार किया,डगमग-डगमग दिग्गज डोले,भगवान् कुपित होकर बोले-‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,यह देख, पवन मुझमें लय है,मुझमें विलीन झंकार सकल,मुझमें लय है संसार सकल।अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
उदयाचल मेरा दीप्त भाल,भूमंडल वक्षस्थल विशाल,भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,मैनाक-मेरु पग मेरे हैं। दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,शत कोटि दण्डधर लोकपाल।जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
भूलोक, अतल, पाताल देख,गत और अनागत काल देख,यह देख जगत का आदि-सृजन,यह देख, महाभारत का रण,मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।
अम्बर में कुन्तल-जाल देख,पद के नीचे पाताल देख,मुट्ठी में तीनों काल देख,मेरा स्वरूप विकराल देख।सब जन्म मुझी से पाते हैं,फिर लौट मुझी में आते हैं।
जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,साँसों में पाता जन्म पवन,पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,हँसने लगती है सृष्टि उधर!मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,छा जाता चारों ओर मरण।
बाँधने मुझे तो आया है,जंजीर बड़ी क्या लाया है?यदि मुझे बाँधना चाहे मन,पहले तो बाँध अनन्त गगन।सूने को साध न सकता है,वह मुझे बाँध कब सकता है?
हित-वचन नहीं तूने माना,मैत्री का मूल्य न पहचाना,तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।याचना नहीं, अब रण होगा,जीवन-जय या कि मरण होगा।
टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,फण शेषनाग का डोलेगा,विकराल काल मुँह खोलेगा।दुर्योधन! रण ऐसा होगा।फिर कभी नहीं जैसा होगा।
भाई पर भाई टूटेंगे,विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।आखिर तू भूशायी होगा,हिंसा का पर, दायी होगा।
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,चुप थे या थे बेहोश पड़े।केवल दो नर ना अघाते थे,धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!
ऐसे सत्य तत्त् वेत्तीय ज्ञान पथ प्रदर्शक महामानवों को मेरा कोटि – कोटि नमन कोटि-कोटि प्रणाम ।
– डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री”