ईश्वर की प्रियता व उसको पाने का मार्ग विषम नहीं हो सकता है। संसारीय जीव , प्राणी ,मानव से विलग नहीं हो सकता है। समाज से घरपरिवार की पारस्परिक प्रेममयी महत्ता से अलग नहीं हो सकता है। क्योंकि उसकी जीवन शास्वत चेतना घरपरिवार, माता पिता, भाईबहिन, पति पत्नी, बेटा बेटी के पारस्परिक सौहार्द्र में परमेश्वर का प्रेमीय अस्तित्व परिलक्षित होता है। परमेश्वरीय सत्ता इसी सृष्टिमानव स्वरूप में विद्यमान है व समायी है। इसलिये सारे ईश्वरीय पूजा पाठ साधना आराधना मानवीय जगत के पारस्परिक प्रेमीय सुमति पर ही अपनी सत्य स्थिति स्थिर करती है। परमेश्वर है या नहीं? बहुत से लोगों का इसपर एक मत नहीं है व ज्यादातर लोग उसके विभिन्न विभिन्न रूपों स्वरूपों में व उसके चित्रीकरण में उसके स्वरूप को देखते व मानते हैं। ग्रन्थों को धार्मिक रूप दिया गया,उनके पठन पाठन पर उनमें व्यक्त प्रशंसा गुणगान आदि को पढ़ना पढ़ाना , गाना बजाना उस परमेश्वर की प्रसन्नता का स्रोत मानते हैं व मन में बसाये रहते हैं अथवा बसाये पड़े हैं। भारत में मानव मानव का जातीय वर्गीकरण भी इसमें परमेश्वरीय रुप आकार में ग्रन्थों के मतभेदीयकरण को भी संदेह के घेरे में खड़ा करता है। कि एक मानव उसकी मन्दिर पूजा में उनके अस्तित्व के पूजाकरण आत्मसाधना आराधना पाठ आदि में अधिकृत है और एक समान मानव जिसकी शारीरिक मानसिक ऐन्द्रिक क्रियायें समान हैं ? परन्तु वह परमेश्वरीय स्मरण ,ध्यान, ज्ञान , पूजा पाठ, साधना आराधना का उत्तराधिकारी नहीं है अथवा उच्च वर्ण व निम्न वर्ण के भेदीय वर्गीकरण के कारण नहीं है। जिसने ईश्वरीय ग्रन्थों के रचियताओं को व ग्रन्थोंको संदेहात्मक रूप रंग में अविश्वासीय घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। कि समान मानवको वह परमेश्वर ईश्वरीय सत्ता जिसे जगद्पिता, जगद्‌ माता, जगद्ईश्वर , परमात्मा कहा गया है । वह दोहरी नीति कैसे बना सकता है ,कैसे सृजन कर सकता है । यह सब विषमतायें समग्र सृष्टिपटल पर मानव मानव में द्वन्दात्मक स्थिति उत्पन्न करती है तथा मानव मानव द्वारा ही उच्च मानव और निम्न मानव रूप में व्याख्यित करके विष से भी विषैली एक अनावश्यक विषय खड़ा कर देता है। यह ऊंचा नीचा मानव स्वरूप अविवेक का परिचय देकर सामूहिक नर संहार करता है व कराता है। जातिगत वर्गीकरण पर मानवता, आत्मीयता जो मेरे दृष्टिदर्शन से परमेश्ववरीय सत्ता के सत्यप्रिय गुण आचार हैं वह उच्च और निम्न वर्ण संरचना कारण पारस्परिक धर्मान्धता का अंधविश्वासीय ठीकरा व्यक्तिके दिल दिमाग में फूटता है। तो वे परमेश्वरीय सत्य नीतिनियम भूलकर असत्य में अंधे होकर निम्न वर्णीय किये गये लोगों को निरपराधीय माताओं, बहिनों , बेटियों , बालक सबकी जान लेने में कहीं कोई परहेज नहीं करते यह सब समग्र सृष्टि पर विडम्बनाई रूप स्वरूप है। जो मेरे दृष्टि दर्शन से अति पाप  मयी व अति अत्याचार व अन्यायका रूप है। मेरी मनोसोच , मनोविचार मेरे आत्मायी दर्शन दृष्टिकोण व दिग्दर्शन स्वरूप से परमेश्वरीयसत्ता जो सृष्टि सृजन पालन संहारण स्वरूप की समस्त क्रियाओं प्रक्रियाओं का परिपूर्ण करता संचालन करता जगद् समस्त व्यवस्था का नियामक है वह साकार व निराकार पृथ्वी स्वरूप में, जल स्वरूप में, अग्नि स्वरूप में, अंतरिक्ष (आकाश )स्वरूप में व वायु स्वरूप में अर्थात् इन स्वरूपों के प्राकृतिक तत्व में वह प्रत्यक्ष है। वस्तु , पदार्थ ,द्रव और अन्य तमाम जीवन सम्बन्धी आहारीय पोषणीय वस्तु पदार्थों में उसका अस्तित्व प्रत्यक्षीभूत होता है। वह सर्व समर्थ सर्व शक्तिमान पूर्ण परम सत्य न्यायिक स्वरूप में जीव ,प्राणी, मानव को सत्य न्याय देने वाला अनुभूत है व अनुभूत होता है। वह निर्विकार ,निष्कामीय , निष्कपट , निर्मोहीय, निर्लोभीय,  निर्लिप्त, निरहंकारीय, सर्व ( जीव , प्राणी , मानव )दाता विधाता है। उसे कहीं किसी से कोई अपनी पूजा पाठ , साधना आराधना की, आहार भोजन की, फल फूल की कहीं कोई अंश मात्र भी आवश्यकता नहीं है। वह तो बस मात्र अपनी रचना संरचना में सुखशांति , आनंद, पारस्परिक प्रेम आत्मीयता ,मानवीयता एक दूसरे के सत्यमायने में यथार्थ पात्र देख कर दुख दर्दबटाना, पारस्परिक एक दूसरे के संकटों में काम आना तथा पूर्ण सत्य प्रेम स्नेह से पारस्परिक रहना ही भाता है। उस परम सत्ता परमात्मीय सत्ता के दया, करुणा, प्रेम स्नेह , उदारता, सहनशीलता उस सर्वेश्वर के स्वयं के गुण हैं । जिसे वह अपनी जीव , प्राणी , मानवीय संरचना से धारण करने व आशा अपेक्षा करता व रखता है और उसे कुछ नहीं चाहिए । इस अपनी रचना , संरचना से यही उस जगद् पिता , जगद्‌माता ,करुणा के सागर की समग्र सृष्टि पटल में विद्यमान मानव शरीर धारियों से सत्य (ईश्वर) की प्रियता का सत्याचार है परन्तु मनुष्य नरनारी , स्त्री पुरुष) उसके नाम पर धोखा , दगा ,अन्याय ,अत्याचार ,छल, छद्म , झूठ , पाखण्ड , विश्वासघातीय रूप स्वरूप में ,अपने कर्माचार में उस सर्वेश्वर , सर्वहितकारी सर्वदयाकारी रूपों का नाम लेकर अनाचार, लूटाचार, व्याभिचार में रत है । यही आचरण विहीनता मुखौटा कुछ और कर्म आचरण, चरित्र कुछ और । यह सब तीर्थ मन्दिरों को विकृत किये हुए हैं जो सर्वत्र विडंबना रूप में दृष्टिगोचर हैं। मानव जगत् में सर्वत्र त्राहि – त्राहि, मानव तन, मन, जीवन में, घर ,मुहल्ला , नगर ,शहर, राज्य , देश विदेश में बसे हृदय में अंधकार फैलाये पड़ा है। यही दोहरे मानव चरित्र में मानवको आत्मविनाश की , आत्म अशान्ति की कगार पर लाकर खड़ा कर रखा है। ऐसे में महान कवि श्री हरिवंशराय जी बच्चन की वह सत्यज्ञान , दर्शन याद आता है कि  ” बैर बढ़ाते मन्दिर मस्जिद , मेल कराती मधुशाला । । ” एक और कवि की कल्पना  ” कहीं कोई झूठ फरेब का भाव नहीं, भूल जाते हैं जूठा प्याला ॥ जो इतनी जीवनविनाश करने वाली मदिरा भी इन मन्दिर मस्जिद से भी अच्छी है जिसे पीकर व्यक्ति ज्ञान अज्ञान भूलकर पारस्परिक प्रेम में इतने विहवल हो जाते हैं कि कौन किस जाति का है और एक ही पात्र में मानव  ग्रुप मदिरा का पान कर लेते हैं। भूल जाते हैं ज्ञान ,विज्ञान , अज्ञान । अंतोगत्वा मूल सार पर आते हैं वह सर्वजगत निर्माता सृजनकर्ता पालन कर्ता, संहारणकर्ता सर्वत्र व्याप्त है । साकार व निराकार है। उसकी नियम नीतिसत्याचरण से उसके ही गुणोंको धारण करकेही उसका प्रियसत्य भक्त , सेवक, दास, मित्र व्यक्ति तब बन सकता है जब वह “आत्मवत् सर्वभूतेषु “ का मंत्र आत्मसात करे व अपने तन मन जीवन आचार में सत्य , दया , करुणा, प्रेम , उदारता , आत्मीयता , मानवीयता जैसे गुणों को धारण करे और आत्म कर्म आचार में उतारे पालन करे । बस यही परमेश्वरी सत्ता की पूर्ण परमसत्य पूजा, आराधना , साधना, पाठ, भोग मात्र यही है । एवं छल, छद्म , झूठ , पाखण्ड , धोखा, दगा, विश्वासघात , अमानवीयता से पूर्णतया सत्य परहेज करें । बस यही उसका प्रत्यक्षीकरण है व आचार सत्य का धनी होना ,रहना उसकी सत्य प्रियता का आधार है।

– डा० बनवारीलाल पीपर “शास्त्री”

 

 

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