आज प्रत्येक जनमानस के अंत : ह्रदय में “आत्मवत् सर्वभूतेषु वेदमंत्र आत्मसात् नहीं होगा।

रिपोर्ट: डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री

अपने जैसा ही सबको जानों ।

” सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप 

जाके हृदय सांच है ताके हृदय आप ॥

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इस समग्र सृष्टि पटल पर विद्यमान कोई भी ऊंचा से ऊंचा और छोटा से छोटा,विश्व का राजा अथवा राष्ट्र का राजा ,राज्य का राजा, स्वराष्ट्र मंत्री ,परराष्ट्र मंत्री , विश्व की सत्ताओं में विद्यमान गृहमंत्री व अन्य मंत्री , सांसद , विधायक तथा सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च न्यायाधीश व सृष्टि पर अन्य न्यायिक स्वरूपों के निर्णायक ,जिलाधीश , मंडलाधीश , राज्यधीश  और ग्रामप्रधानाधीश व समाजीय, समुदायीय न्याय करने वाले जनमानस यदि किन्हीं भी परिस्थिति , किन्हीं भी समस्याएं मानव ( नर-नारी , स्त्री -पुरुष ) विश्व जनमानस की जब तक प्रत्येक जनमानस के अंत : ह्रदय में “आत्मवत् सर्वभूतेषु ” वेदमंत्र आत्मसात् नहीं होगा,  व्यक्तियों के कार्य चरित्र , व्यापार चरित्र , आत्म आचरण चरित्र मेंं सबके प्रति एक दूसरेके प्रति हृदयंगम नहीं होगा, आत्मानुभूतिपरक नहीं होगा ।

तब तक न्याय प्रणाली , न्यायकारक लोग किसी भी आत्मीय सत्य स्वरूप के साथ सत्य न्याय नहीं कर सकेंगे , सत्य न्याय नहीं दे सकेंगे, सत्य न्याय नहीं हो सकेगा और ना ही मिल सकेगा तथा ज्यादातर मानुषीय हृदय कहीं पर भी सृष्टि पटल पर, विश्व पटल पर, राष्ट्र , राज्य पटल पर सामाजिक व सामुदायिक पटल पर , घर परिवारीय पटल पर किन्ही भी मानव स्वरूपों के हृदय में सत्य न्याय होने की , सत्य न्याय मिलने की पूर्ण परम सत्य आत्म विश्वासीय संदेहिता कभी भी दूर नहीं होगी ,जीवन के अन्तिम  क्षणों तक।

किसी भी व्यक्ति के साथ सत्य न्याय हुआ अथवा उसे  सत्य न्याय मिला भी है या नहीं यह भ्रम उसके हृदय से कभी भी निकलेगा नहीं और ना ही उसे पूर्ण परम सत्य आत्म संतोष कभी भी नहीं होगा ।

यह मानव शरीर बड़े – बड़े पदों पर विद्यमान , बड़ी – बड़ी गौरव गरिमा का प्रतीक बड़ी बड़ी पद प्रतिष्ठा , यश , मान , कीर्ति व धन सम्पदा का मालिक हैं एवं बड़ेेेे-बड़े विद्वान, बुद्धिमान, ज्ञानी  विज्ञानी हैं परन्तु पंच विकार ( काम , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार ) से ग्रसित हैं  आच्छादित हैं ।

यही कमी कमजोरियां व्यक्ति को पीड़ित मानव ( नर – नारि , स्त्री – पुरुुष ) को परम सत्य व पूर्ण सत्य न्याय मुहैया नहीं करा पाती है और ना ही सत्य न्याय मिल पाता है और ना ही सत्य न्याय दे पाते हैं ।

जिस दिन  आत्मवत् सर्वभूतेषु ”  मंत्र अर्थ – अपने जैसा ही सबको जानों । न्यायधीशों के समक्ष कार्य दायित्व, कर्तव्य दायित्व , न्याय दायित्व की आशा अपेक्षा सामने उपस्थित है ।

निर्णायक स्वरूप स्थिति परिस्थिति का सत्य आकलन करके छोटी से छोटी जगह या बड़ी से बड़ी जगह हो सत्य न्यायिक निर्णय करो पंच विकारों की आच्छादितता से मुक्त होकर ।

पंच परमेश्वर का स्वरूप अनुभूति करके । तभी दोषी व पीड़ित के साथ सच्चा न्याय हो सकता है अथवा दोषी व पीड़ित को सच्चा पूर्ण परम सत्य आत्मसंतोषित न्याय मिल सकता है ।

संसार, समाज में जीवन के महत्वपूर्ण स्वरूपों के विषयों में सत्य पारदर्शिता पूर्ण ही मिलने वाला न्याय सत्य न्याय कहलाता है एवं होता है । न्याय दाता के अन्तः हृदय में कहीं कोई लोभ – लाभ , प्रलोभन, लालसा कोई अंश मात्र भी ना ही होना चाहिए ना ही रहना चाहिए ऐसे ही सत्य के पुजारी पूर्ण परम सत्य न्याय दे सकते हैं एवं पूर्ण परम सत्य आत्म संतोष पीड़ित स्वरूप को पहुंचा सकते हैं। समग्र सृष्टि पटल पर न्याय दाता का मतलब परमेश्वर का न्याय । न्यायदाता को सम्पूर्णतया निर्भीक , निडर , निर्भय , निर्विकारी , निश्च्छल , निर्मोही , निर्लोभी , निरहंकारी , निष्कामी , पूर्ण निष्पक्षीय होना व रहना चाहिए ।

ऐसा न्यायदाता सर्वमान्य होता है । त्यागी , तपस्वी , पूर्ण परमसत्य कर्मयोगी , कर्म को ही पूजा मानकर उसी में सत्य नैतिक दायित्व व कर्तव्य जहाँ जैसा होता व बनता उसी रुप का निर्वाहन ही सर्वप्रथम स्वयं के लिए परमसत्य न्याय है ।

सृष्टि में विश्व में राष्ट्र में तमाम विनाशकारी विभीषिकायें मात्र सत्य न्याय न मिलने कारण उत्पन्न होती हैं । अगर न्याय सत्य मिले , सत्य न्याय दिया जाये तो विश्व की मानव समुदाय की तमाम विनाशकारी रूप स्वरूपीय  विभीषिकायें मिट सकती हैं ,समाप्त हो सकती हैं।

सृष्टि के सच्चे बुद्धिमानों को , सच्चे सर्वहितीय कल्याण चाहने वालों को पूर्ण परमसत्य धारण करके सम्पूर्णतया निर्भय ,निर्भीक ,  निडर होकर न्याय देना चाहिए तो संसार में मची त्राहि-त्राहि व तमाम सामाजिक लड़ाइयां और भी तमाम सामाजिक दोषपूर्ण घटनाएं युद्ध स्तर स्वरूप की व सामाजिक दोषपूर्ण कार्य समाप्त किये जा सकते हैं।

” सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप 

जाके हृदय सांच है ताके हृदय आप ॥ “

महत्वपूर्ण –  पूर्ण व परम सत्य आत्मजयी लोग ही इस सम्पूर्ण सृष्टि धरा पर कुछ अच्छा व कुछ सच्चा सृष्टि के जीव प्राणी मानव ( नर – नारि , स्त्री – पुरुषों ) के लिए कर पाते हैं , कर जाते हैं। बाकी सामान्य , साधारण , पंचविकारों ( काम , क्रोध , लोभ ,मोह , अहंकार में रचा ,पचा , डूबा कहीं कुछ भी अंश मात्र भी मानव कल्याणीय स्वरूप ना जीता है और ना ही स्वयं अपने लिए जी पाता है।

* हमारी सत्य नियत से ईश्वर प्रसन्न होते हैं और दिखावा मात्र करने से इंसान । यह हम पर निर्भर करता है कि हम किसे प्रसन्न करना चाहते हैं।

*चापलूस , चाटुकार , पेटू ऐसे मनुष्य देहधारी ना ही स्वयं का, ना ही संसार का , ना ही समाज का कुछ भी अच्छा व सच्चा सत्य हित , सत्य कल्याण व सत्य मंगल कुछ भी अंशमात्र कभी भी नहीं कर सकते

इंसान कर्म करने में मनमानी कर सकता है पर अपने किये कर्मों के फल भोगने में नहीं

– डा० बनवारी लाल पीपर “शास्त्री ”

 

 

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